Thursday, January 22, 2009
Monday, January 19, 2009
छत्तीसगढ़ की कला का सम्मान
वैसे तो भारते के भौगोलिक नक्शों पर एक नवंबर २००० को देश के २६वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ की स्थापना हुई. किन्तु जो छत्तीसगढ़ यहां की कला संस्कृति, गीत-संगीत में बरसों से लोगों के दिल में बसा हुआ है और हबीब तनवीर, तीजनबाई, झाडूराम देवांगन, विनोद कुमार शुक्ल की रचनाआें के माध्यम से जिसकी पहचान देश-विदेश में हो चुकी है उस छत्तीसगढ़ ने बहुत पहले ही लोगों के दिलों में जगह बना रखी थी.
छत्तीसगढ़ को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले हबीब तनवीर को हाल ही में लिजेंड ऑफ इंडिया सोसायटी की ओर से दिल्ली की मुख्यमंत्री के हाथों लिजेंड ऑफ इंडिया लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड २००४ दिया गया. मुंबई के पृथ्वी थियेटर में चल रहे फे स्टीवल २००४ में हबीब तनवीर द्वारा निर्देशित सात नाटकों का मंचन हो रहा है, जो पूरे फेस्टीवल में किसी निर्देशक द्वारा निर्देशित ये सर्वाधिक प्रस्तुतियां हैं.
मुंबई का पृथ्वी थियेटर नाटकों से जुड़े लोगों के लिए किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है. रंगकर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति की चाहत होती है कि एक बार उसे पृथ्वी थियेटर के स्टेज पर परफारमेंस करने को मिले. पृथ्वी थियेटर में एक नवंबर से २८ नवंबर २००४ तक चलने वाला फेस्टीवल २००४ छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए बहुत मायने रखता है. छत्तीसगढ़ को पूरी दुनिया में पहुंचाने वाले हबीब तनवीर का नया थियेटर की प्रस्तुति इस फेस्टीवल का मुख्य आकर्षण है. आगरा बाजार, चरणदासचोर, कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद, पोंगा पंडित, जहरीली हवा, सड़क नाटक के जरिए हबीब तनवीर और उनके छत्तीसगढ़ी के लिए गौरव की अनुभूति हो सकती है. छत्तीसगढ़ के जनजीवन से जुड़ी लोक कथाएं, गीत संगीत, हंसी-मजाक सब कुछ जीवंत हो उठता है, हबीब तनवीर के नाटकों में. संयोगवश मुझे इस फेस्टीवल में हबीब तनवीर के दो नाटक आगरा बाजार और चरणदासचोर देखने का अवसर मिला. ये दोनों नाटक हबीब साहब के रंगकर्म के सफर में संगे मील हैं. नाटकों की टिकिट जो सौ रूपए थी, की पहले से एडवांस बुकिंग हो चुकी थी, मुझे तो हबीब साहब की वजह से पृथ्वी थियेटर में जाने को मिला. मेरे सामने कितने ही नाट्यप्रेमी निराश लौटे. नाटक के बाद कला की दुनिया के बड़े-बड़े नामों को जो नाट्य प्रस्तुति के दौरान मौजूद थे हबीब साहब और छत्तीसगढ़ के कलाकारों से आत्मीय रिश्ता बनाते देखकर बहुत अच्छा लगा. हमारे राजनांदगांव के देवार जाति से आने वाली कलाकार पूनम जब अब दीपक तिवारी की पत्नी है, के साथ संजना कपूर के फोटो खिंचवाते देखना अपने आपमें सुखद अनुभूति है. पूनम तिवारी ने अपनी खनकदार आवाज डांस और अदाकारी से नाट्य प्रस्तुति में चार चांद लगाया. हबीब तनवीर से कुछ समय के लिए बिछड़े इस दंपति ने अब अपने बाल-बच्चों के साथ नए सिरे से अपने को नया थियेटर से जोड़ा है. यह नया थियेटर के लिए उपलब्धि है. हबीब तनवीर के नाटकों में उनकी बेटी नगिन की उपस्थिति भी नाटकों की प्रभावी प्रस्तुति में सहायक रही है. फिल्मी और रंगकर्म की दुनिया से जुड़ी नामचीन हस्तियां हबीब साहब से उनकी टीम के कलाकारों से रूबरू होकर उन्हें बधाई दे रही थीं. उनसे छत्तीसगढ़ के बारे में, यहां की कला संस्कृति के बारे में बातें कर रही थीं और इन सबके गवाह के रूप में मुंबई में रहने वाली छत्तीसगढ़ की एक हस्ती वहां मौजूद थी, जिनका नाम है सत्यदेव दुबे.
स्क्रिप्ट राइटर, लेखक जावेद सिद्दीकी कहने लगे कि मुंबई में हमारे जैसे लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि हम इतनी बड़ी टीम लेकर नाट्य प्रस्तुति करें. हबीब साहब ८५ की उम्र में भी पचास-साठ कलाकारों का दल लेकर इतने सारे नाटक कैसे कर लेते हैं ? जो लोग हबीब तनवीर और उनकी पत्नी मोनिका तनवीर को जानते हैं वे इस हुनर से वाकिफ हैं.
रायपुर के लॉरी (सप्रे) म्युनिसिपल स्कूल में सन् १९३० में ११ वर्ष की आयु से अपनी नाट्य यात्रा प्रारंभ करने वाले हबीब तनवीर ने सबसे पहले शेक्सपियर के किंग्जान में पिं्रस ऑर्थर का अभिनय किया. उसके बाद अपने फारसी शिक्षक मोहम्मद ईशाक, जो बाद में उनके बहनोई हुए, द्वारा लिखे नाटक में एक जूता पॉलिश करने वाले का रोल किया. हबीब तनवीर को दोनों नाट्कों के लिए ठाकुर प्यारेलाल एवार्ड मिला. इसके बाद नागपुर के मॉरिस कॉलेज में स्नातक तथा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में एम.ए. करने पहुंचे. हबीब तनवीर एम.ए. फर्स्टईयर करके मुंबई पहंुच गए. हबीब अहमद खान से शायरी के लिए रखा तखल्लुस तनवीर जोड़कर हबीब तनवीर कहलाने वाले इस शख्स ने अपनी जमीन को अपनी जड़ों को गहराई से पकड़कर रखा. इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ की यात्रा करते हुए ब्रिटेन में नाटक का प्रशिक्षण लेने के उपरांत १९६४ में मोनिकाजी केे साथ दिल्ली के जनपथ में एक गैरेज से ९ लोगों के साथ नया थियेटर की शुरूआत हुई. लोक जीवन से उठाई गई चीजों को आधुनिक दृष्टि, आधुनिक संवेदनाआें के साथ इतिहास और राजनीति की गहरी समझ रखते हुए नाट्य प्रस्तुति नया थियेटर की विशेषता बनकर उभरी.
देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हालातों पर गहरी नजर रखकर उसे अपने नाटकों के जरिये से उठाने वाले हबीब तनवीर को १९७० में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर आज तक अनेकों पुरस्कारों के साथ पद्मश्री, पद्मभूषण, राज्य सभा की सदस्यता तक से सम्मानित किया जा चुका है. १९७३ में छत्तीसगढ़ के कलाकारोें की मदद से नया थियेटर व्यावसायिक थियेटर के रूप में स्थापित होकर आज तक सक्रिय है.
छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों की मातृभाषा और मुक्त अंग संचालन को समझकर यहां की लोककथा, मुहावरे, नाचा, गम्मत, पंथी, नृत्य, पंडवानी को अपने नाटकों में समाहित कर हबीब तनवीर ने नाटकों का वह संसार रचा है जो अपने आप में अद्वितीय है, जिन्होंने हबीब तनवीर का आगरा बाजार देखा है उनकी जुबान पर नजीर अकबरावादी की शायरी गूंजती रहती है. नजीर की यह शायरी पृथ्वी थियेटर में बैठे प्रत्येक कलाप्रेमी की जुबान पर थी जिसकी गंूज आने वाले दिनों में भी सुनाई पड़ती रही.
``दुनिया में जो बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफलिसो गधा है सो है वह भी आदमी
जरदार, बेन्नवा है सो है वह भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी
नेमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी
मस्जिद भी आदमी ने बनाई है यां मियां
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाखां
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां
जो उनको ताड़ता है, सो है वह भी आदमी''
एक यायावर की तरह पूरे देश और दुनिया में घूम-घूमकर छत्तीसगढ़ की लोककला और यहां की माटी से जुड़े कलाकारों को ले जाने वाले हबीब तनवीर के नाटकों का मंचन पृथ्वी थियेटर फेस्टीवल २००४ के माध्यम से दिल्ली, बैंगलोर में भी होगा. गोंविदराम निर्मलकर, अमर दास मानिकपुरी, उदयराम श्रीवास, चिंताराम यादव, भूलवाराम यादव, रामचंद्र सिंह, दीपक तिवारी, पूनम तिवारी जैसे अपने साथी कलाकारों के साथ पूरे देश में प्रामाणिक और मौलिक नाटकों के जरिए अपनी अलग पहचान बनाने वाले हबीब तनवीर ने थियेटर को ग्रामीण तथा नए भारतीय कलाकारों के माध्यम से अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए लोक थियेटर के मूल्यों को बचाए रखा है. छत्तीसगढ़ का परचम अपनी समृद्ध लोककला, लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य और रंगमंच के जरिए पूरी दुनिया में फहराता रहेगा और इसकी अगवाई का श्रेय जाएगा हबीब तनवीर जैसे लोगों के नाम.
छत्तीसगढ़ को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले हबीब तनवीर को हाल ही में लिजेंड ऑफ इंडिया सोसायटी की ओर से दिल्ली की मुख्यमंत्री के हाथों लिजेंड ऑफ इंडिया लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड २००४ दिया गया. मुंबई के पृथ्वी थियेटर में चल रहे फे स्टीवल २००४ में हबीब तनवीर द्वारा निर्देशित सात नाटकों का मंचन हो रहा है, जो पूरे फेस्टीवल में किसी निर्देशक द्वारा निर्देशित ये सर्वाधिक प्रस्तुतियां हैं.
मुंबई का पृथ्वी थियेटर नाटकों से जुड़े लोगों के लिए किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है. रंगकर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति की चाहत होती है कि एक बार उसे पृथ्वी थियेटर के स्टेज पर परफारमेंस करने को मिले. पृथ्वी थियेटर में एक नवंबर से २८ नवंबर २००४ तक चलने वाला फेस्टीवल २००४ छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए बहुत मायने रखता है. छत्तीसगढ़ को पूरी दुनिया में पहुंचाने वाले हबीब तनवीर का नया थियेटर की प्रस्तुति इस फेस्टीवल का मुख्य आकर्षण है. आगरा बाजार, चरणदासचोर, कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद, पोंगा पंडित, जहरीली हवा, सड़क नाटक के जरिए हबीब तनवीर और उनके छत्तीसगढ़ी के लिए गौरव की अनुभूति हो सकती है. छत्तीसगढ़ के जनजीवन से जुड़ी लोक कथाएं, गीत संगीत, हंसी-मजाक सब कुछ जीवंत हो उठता है, हबीब तनवीर के नाटकों में. संयोगवश मुझे इस फेस्टीवल में हबीब तनवीर के दो नाटक आगरा बाजार और चरणदासचोर देखने का अवसर मिला. ये दोनों नाटक हबीब साहब के रंगकर्म के सफर में संगे मील हैं. नाटकों की टिकिट जो सौ रूपए थी, की पहले से एडवांस बुकिंग हो चुकी थी, मुझे तो हबीब साहब की वजह से पृथ्वी थियेटर में जाने को मिला. मेरे सामने कितने ही नाट्यप्रेमी निराश लौटे. नाटक के बाद कला की दुनिया के बड़े-बड़े नामों को जो नाट्य प्रस्तुति के दौरान मौजूद थे हबीब साहब और छत्तीसगढ़ के कलाकारों से आत्मीय रिश्ता बनाते देखकर बहुत अच्छा लगा. हमारे राजनांदगांव के देवार जाति से आने वाली कलाकार पूनम जब अब दीपक तिवारी की पत्नी है, के साथ संजना कपूर के फोटो खिंचवाते देखना अपने आपमें सुखद अनुभूति है. पूनम तिवारी ने अपनी खनकदार आवाज डांस और अदाकारी से नाट्य प्रस्तुति में चार चांद लगाया. हबीब तनवीर से कुछ समय के लिए बिछड़े इस दंपति ने अब अपने बाल-बच्चों के साथ नए सिरे से अपने को नया थियेटर से जोड़ा है. यह नया थियेटर के लिए उपलब्धि है. हबीब तनवीर के नाटकों में उनकी बेटी नगिन की उपस्थिति भी नाटकों की प्रभावी प्रस्तुति में सहायक रही है. फिल्मी और रंगकर्म की दुनिया से जुड़ी नामचीन हस्तियां हबीब साहब से उनकी टीम के कलाकारों से रूबरू होकर उन्हें बधाई दे रही थीं. उनसे छत्तीसगढ़ के बारे में, यहां की कला संस्कृति के बारे में बातें कर रही थीं और इन सबके गवाह के रूप में मुंबई में रहने वाली छत्तीसगढ़ की एक हस्ती वहां मौजूद थी, जिनका नाम है सत्यदेव दुबे.
स्क्रिप्ट राइटर, लेखक जावेद सिद्दीकी कहने लगे कि मुंबई में हमारे जैसे लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि हम इतनी बड़ी टीम लेकर नाट्य प्रस्तुति करें. हबीब साहब ८५ की उम्र में भी पचास-साठ कलाकारों का दल लेकर इतने सारे नाटक कैसे कर लेते हैं ? जो लोग हबीब तनवीर और उनकी पत्नी मोनिका तनवीर को जानते हैं वे इस हुनर से वाकिफ हैं.
रायपुर के लॉरी (सप्रे) म्युनिसिपल स्कूल में सन् १९३० में ११ वर्ष की आयु से अपनी नाट्य यात्रा प्रारंभ करने वाले हबीब तनवीर ने सबसे पहले शेक्सपियर के किंग्जान में पिं्रस ऑर्थर का अभिनय किया. उसके बाद अपने फारसी शिक्षक मोहम्मद ईशाक, जो बाद में उनके बहनोई हुए, द्वारा लिखे नाटक में एक जूता पॉलिश करने वाले का रोल किया. हबीब तनवीर को दोनों नाट्कों के लिए ठाकुर प्यारेलाल एवार्ड मिला. इसके बाद नागपुर के मॉरिस कॉलेज में स्नातक तथा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में एम.ए. करने पहुंचे. हबीब तनवीर एम.ए. फर्स्टईयर करके मुंबई पहंुच गए. हबीब अहमद खान से शायरी के लिए रखा तखल्लुस तनवीर जोड़कर हबीब तनवीर कहलाने वाले इस शख्स ने अपनी जमीन को अपनी जड़ों को गहराई से पकड़कर रखा. इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ की यात्रा करते हुए ब्रिटेन में नाटक का प्रशिक्षण लेने के उपरांत १९६४ में मोनिकाजी केे साथ दिल्ली के जनपथ में एक गैरेज से ९ लोगों के साथ नया थियेटर की शुरूआत हुई. लोक जीवन से उठाई गई चीजों को आधुनिक दृष्टि, आधुनिक संवेदनाआें के साथ इतिहास और राजनीति की गहरी समझ रखते हुए नाट्य प्रस्तुति नया थियेटर की विशेषता बनकर उभरी.
देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हालातों पर गहरी नजर रखकर उसे अपने नाटकों के जरिये से उठाने वाले हबीब तनवीर को १९७० में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर आज तक अनेकों पुरस्कारों के साथ पद्मश्री, पद्मभूषण, राज्य सभा की सदस्यता तक से सम्मानित किया जा चुका है. १९७३ में छत्तीसगढ़ के कलाकारोें की मदद से नया थियेटर व्यावसायिक थियेटर के रूप में स्थापित होकर आज तक सक्रिय है.
छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों की मातृभाषा और मुक्त अंग संचालन को समझकर यहां की लोककथा, मुहावरे, नाचा, गम्मत, पंथी, नृत्य, पंडवानी को अपने नाटकों में समाहित कर हबीब तनवीर ने नाटकों का वह संसार रचा है जो अपने आप में अद्वितीय है, जिन्होंने हबीब तनवीर का आगरा बाजार देखा है उनकी जुबान पर नजीर अकबरावादी की शायरी गूंजती रहती है. नजीर की यह शायरी पृथ्वी थियेटर में बैठे प्रत्येक कलाप्रेमी की जुबान पर थी जिसकी गंूज आने वाले दिनों में भी सुनाई पड़ती रही.
``दुनिया में जो बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफलिसो गधा है सो है वह भी आदमी
जरदार, बेन्नवा है सो है वह भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी
नेमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी
मस्जिद भी आदमी ने बनाई है यां मियां
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाखां
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां
जो उनको ताड़ता है, सो है वह भी आदमी''
एक यायावर की तरह पूरे देश और दुनिया में घूम-घूमकर छत्तीसगढ़ की लोककला और यहां की माटी से जुड़े कलाकारों को ले जाने वाले हबीब तनवीर के नाटकों का मंचन पृथ्वी थियेटर फेस्टीवल २००४ के माध्यम से दिल्ली, बैंगलोर में भी होगा. गोंविदराम निर्मलकर, अमर दास मानिकपुरी, उदयराम श्रीवास, चिंताराम यादव, भूलवाराम यादव, रामचंद्र सिंह, दीपक तिवारी, पूनम तिवारी जैसे अपने साथी कलाकारों के साथ पूरे देश में प्रामाणिक और मौलिक नाटकों के जरिए अपनी अलग पहचान बनाने वाले हबीब तनवीर ने थियेटर को ग्रामीण तथा नए भारतीय कलाकारों के माध्यम से अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए लोक थियेटर के मूल्यों को बचाए रखा है. छत्तीसगढ़ का परचम अपनी समृद्ध लोककला, लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य और रंगमंच के जरिए पूरी दुनिया में फहराता रहेगा और इसकी अगवाई का श्रेय जाएगा हबीब तनवीर जैसे लोगों के नाम.
फूलों की चोरी का मौसम
हमारे यहां सामान्यत: एक बरस में चार मौसम की बात स्वीकार की गई है. फिल्मी गीतकारों ने पांचवां मौसम प्यार का बताया है. मुझे लगता है कि हमारे यहां एक और मौसम होता है, वह है फूलों की चोरी का. फूलों का रिश्ता भक्ति और प्रेम से है. फूल प्रतीक हैं, श्रद्धा भक्ति, पे्रम और सौन्दर्य के. गुलाब प्रेमियों का फूल है जिसकी सर्वाधिक बिक्री आजकल वेलेंटाइन डे पर होती है. फूलों को लेकर बहुत सारी कविताएं, शेर-शायरी, किस्से, कहानी हैं. मशहूर शायर बशीर बद्र ने कहा भी है ``गुलाब की तरह दिल अपना शबनम में भिगोते हैं, मोहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं.'' कवि माखनलाल चतुर्वेदी `एक फूल की अभिलाषा' को कुछ इस तरह बयान करते हैं कि ``चाह नहीं किसी सुरबाला के बालों में गूंथा जाऊं , मुझे तोड़ लेना वनमाली और उस राह में देना फेंक जिस राह पर जाएं वीर अनेक'' सामान्यत: फूल सभी को अच्छे लगते हैं.
खिले हुए फूलों से हरे भरे पेड़-पौधों को देखकर मन हर्षित होता है. कुछ लोगों को अपने बगीचे के फूल अच्छे लगते हैं और कुछ की नजर हमेशा दूसरों के बगीचे में खिले-खिले फूलों पर होती है. सार्वजनिक स्थानों पर खिले फूलों को सर्वाधिक देखभाल की जरूरत होती है. सार्वजनिक बगीजों में खिले फूल अक्सर माली ही तोड़ते हैं. फूलों की वेदना कुछ इस तरह से व्यक्त होती है ``माली आवत देखकर कलियन करे पुकार, खिली-खिली चुन लिए आज हमारी बार.''
सर्वाधिक फूल भगवान को चढ़ते हैं. भक्तगण भगवान को खरीदे गए फूल कम और चोरी के फूल ज्यादा चढ़ाते हैं. ऐसा लगता है कि भगवान खरीदे गए फूलों की अपेक्षा चोरी के फूल ज्यादा स्वीकार करते हैं. भगवान में आस्था रखने वाले भक्तजन मुंह अंधेरे से ही थैला, डंडी लेकर निकल पड़ते हैं. फूलों की चोरी करने और यदि गलती से आप उन्हें अपने घर से बिना अनुमति फूल तोड़ने के लिए टोक, रोक दें, तो वे नाराज हो जाते हैं. सोचते हैं, कैसा अधर्मी है जो भगवान के लिए फूल लेने से मना करता है. फूल पेड़ में नहीं भगवान के श्रीचरणों में अच्छे लगते हैं. भगवान चोरी के फूलों, रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी से चढ़ाए गए चढ़ावे और दिए गए दान तथा किए गये निर्माण के बारे में चूंकि कुछ कहते नहीं हैं इसलिए बहुत सारे भक्तगण इसे भगवान की मौन स्वीकृति मानकर जारी रखते हैं. कुछ लोगों के लिए यह चिंतन का विषय हो सकता है कि आर.टी.ओ. सेलटेक्स आदि के चेकपोस्ट, बड़ी सिंचाई योजना के कार्यस्थल, कमाईवाले सरकारी कार्यालयों के ईदगिर्द या फिर थानों के बाजू में ही भगवान के मंदिर क्यों बनते हैं ? अंतर्यामी अल्लाह, ईश्वर, गॉड क्या अपने भक्तजनों से सपने में आकर बीच सड़क में उनको विराजमान करके यातायात में अवरोध उत्पन्न करने का आदेश देते हैं. सड़क पर बनने वाले धार्मिक स्थल और उनमें विराजे ईश्वर को देखकर कई बार दया आती है, तो कई बार क्रोध. क्या भगवान आपको धूल, गर्मी, शोर पसंद हैं. क्या प्रभु आपको साफ-सुथरे पर्यावरण, शांति का स्थान पसंद नहीं है जो इन बदमाश चेलों के चक्कर में पड़कर आप बीच सड़क में विराजने को तैयार हो जाते हो. प्रभु आप अंतर्यामी हैं, खलकामियों को दंड ेदेने वाले हैं, सर्वज्ञाता हैं, त्रिकालदर्शी हैं फिर आप अपने ऐसे भक्तों को जो चोरी के फूल आप पर चढ़ाकर आपको भी अपने अपराध में शामिल करते हैं, दंडित क्यों नहीं करते. हमारी पुलिस तो चोरी का माल खरीदने, बेचने और रखने वालों के खिलाफ तत्काल कार्यवाही करती है. क्या भगवान ऐसा नहीं हो सकता कि आप चोरी के फूलों को स्वीकारना ही बंद कर दें. आपके तमाम मंदिरों में इस आशय की सूचना अंकित कर दी जाए कि चोरी के फूल, चोरी का पैसा, नंबर दो की कमाई, गरीबों को सताकर प्राप्त किया गया धन मेरे मंदिर में स्वीकार नहीं होगा. बिना शोरगुल, लाउडस्पीकर के मेरी पूजा अर्चना होगी. कोई पाखंड ढोंग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. मेरे नाम पर किसी तरह की राजनीति, लड़ाई, दुकानदारी नहीं चलेगी. मेरे मंदिर में बिना भेदभाव के सभी को प्रवेश की अनुमति होगी.
यदि ईश्वर प्रदत्त इस प्रकृति से पेड़-पौधे और विविध फूलों को हटा दिया जाए तो समूची प्रकृति बदरंग हो जाएगी. किसी भी जगह पर खिले फूल को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है. आंखे बरबस फूलों की ओर आकर्षित होती हैं. फूलों के रंग मनुष्य में रसों का संचार करते हैं. कुछ कैक्टस भी फूलों वाले होते हैं, जो देखने में अच्छे लगते हैं. फूलों की खुशबू से मन महक जाता है. विविध तरह के पक्षी फूलों से आकर्षित होकर आते हैं. तालाब में खिला हुआ कमल तालाब की संुदरता में चार चांद लगा देता है. चंपा, चमेली, मोंगरा, की महक नीरस से नीरस आदमी को मदहोश कर देती है.
फूलों से आशिकी का हुनर सीख लें,
तितलियां खुद रूकेंगी सदाएं न दें.
वैसे भी हमारे शहरों में ढंग के बगीचे नहीं हैं, जो थोड़े-बहुत बगीचे हैं वे भी ओव्हर काउडेड हैं. बाजार में बदलते शहर के कारण अब घरों के सामने पेड़-पौधे, बगीचे नहीं लगाए जाते. शटर लगाकर दुकान बनाई जाती है. कुछ ही घर हैं जहां खिले हुए फूल, हरे-भरे पौधे दिखाई पड़ जाते हैं. तालाबों में कमल की जगह जलकंुभी भरी पड़ी है, नदी-नाले प्लास्टिक और शहरी गंदगी से पटे पड़े हैं. ऐसे समय में एक अच्छे नागरिक के नाते हमारी जवाबदारी है कि हम अपने पर्यावरण को बेहतर बनाएं. जहां कहीं भी खिले हुए फूल हैं उन्हें पेड़-पौधों पर लगे रहने दें.
घर में खिला हुआ एक फूल भी घर की रौनक में चार चांद लगा देता है. सड़क के किनारे और बीच में लगे पौधे और उसमें खिले फूल को देखकर किसी शहर के सौंदर्य का वहां के लोगों की रूचि का पता चलता है. दूसरे के घरों में खिले फूल तोड़ने को अपना अधिकार समझने वालों को अपने घर में पौधे लगाकर फूलों को खिलते हुए देखना चाहिए. फूल तोड़न के लिए सुबह-सुबह तरह-तरह के उपक्रम करने वालों में कई चेहरे तो ऐसे होते हैं जो आसानी से फूल खदीद सकते हैं. जो सार्वजनिक जीवन में चोरी चकारी के खिलाफ हैं किन्तु सुबह-सुबह दूसरों के घरों से फूल तोड़ते हुए उन्हें यह अनुभूति कतई नहीं होती कि वे कोई अपराध कर रहे हैं. वे तो फूल चारी को धार्मिक कृत्य समझते हैं. मेहनत से तैयार की गई क्यारी, फूलवारी में खिले फूल को देखकर जो अनुभूति होती है वह अपने आपमें अविस्मरणीय है. कुछ लोग बिना श्रम के दूसरों के लगाए पेड़ से फल खाने की चाह रखते हैं. बकौल शायर बशीर बद्र -
``जहां पेड़ पर चार दाने लगे, हजारों तरफ से निशाने लगे.''
खिले हुए फूलों से हरे भरे पेड़-पौधों को देखकर मन हर्षित होता है. कुछ लोगों को अपने बगीचे के फूल अच्छे लगते हैं और कुछ की नजर हमेशा दूसरों के बगीचे में खिले-खिले फूलों पर होती है. सार्वजनिक स्थानों पर खिले फूलों को सर्वाधिक देखभाल की जरूरत होती है. सार्वजनिक बगीजों में खिले फूल अक्सर माली ही तोड़ते हैं. फूलों की वेदना कुछ इस तरह से व्यक्त होती है ``माली आवत देखकर कलियन करे पुकार, खिली-खिली चुन लिए आज हमारी बार.''
सर्वाधिक फूल भगवान को चढ़ते हैं. भक्तगण भगवान को खरीदे गए फूल कम और चोरी के फूल ज्यादा चढ़ाते हैं. ऐसा लगता है कि भगवान खरीदे गए फूलों की अपेक्षा चोरी के फूल ज्यादा स्वीकार करते हैं. भगवान में आस्था रखने वाले भक्तजन मुंह अंधेरे से ही थैला, डंडी लेकर निकल पड़ते हैं. फूलों की चोरी करने और यदि गलती से आप उन्हें अपने घर से बिना अनुमति फूल तोड़ने के लिए टोक, रोक दें, तो वे नाराज हो जाते हैं. सोचते हैं, कैसा अधर्मी है जो भगवान के लिए फूल लेने से मना करता है. फूल पेड़ में नहीं भगवान के श्रीचरणों में अच्छे लगते हैं. भगवान चोरी के फूलों, रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी से चढ़ाए गए चढ़ावे और दिए गए दान तथा किए गये निर्माण के बारे में चूंकि कुछ कहते नहीं हैं इसलिए बहुत सारे भक्तगण इसे भगवान की मौन स्वीकृति मानकर जारी रखते हैं. कुछ लोगों के लिए यह चिंतन का विषय हो सकता है कि आर.टी.ओ. सेलटेक्स आदि के चेकपोस्ट, बड़ी सिंचाई योजना के कार्यस्थल, कमाईवाले सरकारी कार्यालयों के ईदगिर्द या फिर थानों के बाजू में ही भगवान के मंदिर क्यों बनते हैं ? अंतर्यामी अल्लाह, ईश्वर, गॉड क्या अपने भक्तजनों से सपने में आकर बीच सड़क में उनको विराजमान करके यातायात में अवरोध उत्पन्न करने का आदेश देते हैं. सड़क पर बनने वाले धार्मिक स्थल और उनमें विराजे ईश्वर को देखकर कई बार दया आती है, तो कई बार क्रोध. क्या भगवान आपको धूल, गर्मी, शोर पसंद हैं. क्या प्रभु आपको साफ-सुथरे पर्यावरण, शांति का स्थान पसंद नहीं है जो इन बदमाश चेलों के चक्कर में पड़कर आप बीच सड़क में विराजने को तैयार हो जाते हो. प्रभु आप अंतर्यामी हैं, खलकामियों को दंड ेदेने वाले हैं, सर्वज्ञाता हैं, त्रिकालदर्शी हैं फिर आप अपने ऐसे भक्तों को जो चोरी के फूल आप पर चढ़ाकर आपको भी अपने अपराध में शामिल करते हैं, दंडित क्यों नहीं करते. हमारी पुलिस तो चोरी का माल खरीदने, बेचने और रखने वालों के खिलाफ तत्काल कार्यवाही करती है. क्या भगवान ऐसा नहीं हो सकता कि आप चोरी के फूलों को स्वीकारना ही बंद कर दें. आपके तमाम मंदिरों में इस आशय की सूचना अंकित कर दी जाए कि चोरी के फूल, चोरी का पैसा, नंबर दो की कमाई, गरीबों को सताकर प्राप्त किया गया धन मेरे मंदिर में स्वीकार नहीं होगा. बिना शोरगुल, लाउडस्पीकर के मेरी पूजा अर्चना होगी. कोई पाखंड ढोंग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. मेरे नाम पर किसी तरह की राजनीति, लड़ाई, दुकानदारी नहीं चलेगी. मेरे मंदिर में बिना भेदभाव के सभी को प्रवेश की अनुमति होगी.
यदि ईश्वर प्रदत्त इस प्रकृति से पेड़-पौधे और विविध फूलों को हटा दिया जाए तो समूची प्रकृति बदरंग हो जाएगी. किसी भी जगह पर खिले फूल को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है. आंखे बरबस फूलों की ओर आकर्षित होती हैं. फूलों के रंग मनुष्य में रसों का संचार करते हैं. कुछ कैक्टस भी फूलों वाले होते हैं, जो देखने में अच्छे लगते हैं. फूलों की खुशबू से मन महक जाता है. विविध तरह के पक्षी फूलों से आकर्षित होकर आते हैं. तालाब में खिला हुआ कमल तालाब की संुदरता में चार चांद लगा देता है. चंपा, चमेली, मोंगरा, की महक नीरस से नीरस आदमी को मदहोश कर देती है.
फूलों से आशिकी का हुनर सीख लें,
तितलियां खुद रूकेंगी सदाएं न दें.
वैसे भी हमारे शहरों में ढंग के बगीचे नहीं हैं, जो थोड़े-बहुत बगीचे हैं वे भी ओव्हर काउडेड हैं. बाजार में बदलते शहर के कारण अब घरों के सामने पेड़-पौधे, बगीचे नहीं लगाए जाते. शटर लगाकर दुकान बनाई जाती है. कुछ ही घर हैं जहां खिले हुए फूल, हरे-भरे पौधे दिखाई पड़ जाते हैं. तालाबों में कमल की जगह जलकंुभी भरी पड़ी है, नदी-नाले प्लास्टिक और शहरी गंदगी से पटे पड़े हैं. ऐसे समय में एक अच्छे नागरिक के नाते हमारी जवाबदारी है कि हम अपने पर्यावरण को बेहतर बनाएं. जहां कहीं भी खिले हुए फूल हैं उन्हें पेड़-पौधों पर लगे रहने दें.
घर में खिला हुआ एक फूल भी घर की रौनक में चार चांद लगा देता है. सड़क के किनारे और बीच में लगे पौधे और उसमें खिले फूल को देखकर किसी शहर के सौंदर्य का वहां के लोगों की रूचि का पता चलता है. दूसरे के घरों में खिले फूल तोड़ने को अपना अधिकार समझने वालों को अपने घर में पौधे लगाकर फूलों को खिलते हुए देखना चाहिए. फूल तोड़न के लिए सुबह-सुबह तरह-तरह के उपक्रम करने वालों में कई चेहरे तो ऐसे होते हैं जो आसानी से फूल खदीद सकते हैं. जो सार्वजनिक जीवन में चोरी चकारी के खिलाफ हैं किन्तु सुबह-सुबह दूसरों के घरों से फूल तोड़ते हुए उन्हें यह अनुभूति कतई नहीं होती कि वे कोई अपराध कर रहे हैं. वे तो फूल चारी को धार्मिक कृत्य समझते हैं. मेहनत से तैयार की गई क्यारी, फूलवारी में खिले फूल को देखकर जो अनुभूति होती है वह अपने आपमें अविस्मरणीय है. कुछ लोग बिना श्रम के दूसरों के लगाए पेड़ से फल खाने की चाह रखते हैं. बकौल शायर बशीर बद्र -
``जहां पेड़ पर चार दाने लगे, हजारों तरफ से निशाने लगे.''
पुलिस को देखने का एक नजरिया यह भी
पूरी दुनिया में इस समय मानव अधिकारों के संरक्षण की बात हो रही है. मानव अधिकारवादी संगठन जगह-जगह प्रदर्शन, गोष्ठी कर इस ओर ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं. मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और राज्य मानव अधिकार आयोग काम कर रहे हैं. यह देखने में आया है कि मानव अधिकारों के उल्लंघन की सबसे ज्यादा शिकायत पुलिस की होती है. पुलिस के कार्य व्यवहार, ज्यादतियों की शिकायतों को देखते हुए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने १९९३ में अपने गठन के समय से ही पुलिस सुधार की आवश्यकता पर बल दिया. आयोग ने कहा कि पुलिस सुधार अच्छे प्रशासन का प्रमुख मुद्दा है, जिससे एक संस्कृति का निर्माण होता है, जो मानव अधिकारों का सम्मान करता है.
देश के अन्य राज्यों की ही तरह छत्तीसगढ़ में भी मानव अधिकारों के उल्लंघन की सर्वाधिक शिकायतें पुलिस से ही हैं. राज्य में पुलिस हिरासत में होने वाली कथित मौतें और पुलिस ज्यादती की खबरों के बीच यह प्रश्न अनुत्तरित है कि जब पुलिसबल के लोग जानते हैं कि हिरासत में होने वाली मौत से उनकी नौकरी चली जाएगी वे गिरफ्तार हो जाएंगे, उन पर केस चलेगा, फिर वे ऐसा क्यों करते हैं ? हर बात के लिए पुलिस को दोष देना, उससे चुस्त-दुरूस्त रहकर जनसेवा की अपेक्षा रखने वाले हम लोगों का नजरिया पुलिस के प्रति कैसा है ? पुलिस किस दबाव, वातावरण और सुविधाआें के बीच काम करती है ? इस पर भी विचार करने की जरूरत है.
हमारे यहां पुलिस की छवि मित्र की कम, डराने, फंसाने वाले की अधिक है. पुलिस पावर के पर्याय के रूप में हमें दिखलाई पड़ती है, जिसका उपयोग सामान्यत: हर सत्ताधारी दल अपने हिसाब से करना चाहता है. किसी भी गांव, देहात, कस्बे और शहर में सरकार के सत्तारूपी चेहरे के रूप में पटवारी, पुलिस पर पहले नजर पड़ती है. चूंकि दोनों का ही सीधा संबंध आम-जनता से रहता है और दोनों ही कहीं-न-कहीं सीधे लाभ-हानि से जुड़े होते हैं इसलिए इनसे मिलते बातचीत और व्यवहार करते समय आदमी की भावमुद्रा अन्य शासकीय सेवकों की तुलना में थोड़ी अलग होती है.
हम पुलिस की बात करें तो पाते हैं कि लोग पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी अच्छी, सीख के साथ हमें मिलते हैं. जब तक काम न हो, मुसीबत ना आए या पुलिस खुद न पकड़ ले, बुला ले तब तक सामान्यत: लोग पुलिस से दूर रहते हैं. यदि किसी के घर अचानक कोई पुलिसकर्मी आ जाए तो आसपास के लोग उसे संशय से देखकर खुसरपुसर करने लगते हैं. सवाल यह है कि जो व्यक्ति कल तक हमारे जैसा ही था, जिसके दुख-दर्द, संवेदनाएं, हंसी-खुशी सब कुछ हमारे जैसी थी वह व्यक्ति वर्दी पहनते ही कैसे बदल जाता है ?
पुलिस के प्रति अविश्वास के कारणों की यदि हम पड़ताल करें तो हमें इसके ऐतिहासिक कारण भी दिखलाई पड़ते हैं. भारत में पुलिस संगठन की स्थापना विद्रोह को दबाने और हमारे विदेशी शासकों के हितों को पूरा करने के लिए १८५७ के भारतीय गदर के बाद की गई थी जिससे जनता के मन में पुलिस के प्रति नकारात्मक भाव पैदा हुआ वह अविश्वास और नफरत का भाव हमें आजादी प्राप्ति के ५६ साल बाद भी दिखलाई पड़ता है.
पुलिस की खराब छवि के कारणों की पड़ताल की जाए तो जो मुख्य कारण हमें दिखलाई पड़ते हैं वे हैं पुलिस हमेशा शासक वर्ग के बचाव में खड़ी दिखती है जिसके कारण उसे शासक वर्ग की इच्छा, निर्देशों के अनुरूप काम करना पड़ता है. चाहे फिर वह जनभावना के विपरीत ही क्यों न हो. जो प्रकरण पुलिस द्वारा तैयार किए जाते हैं, उन्हें समय पर न्यायालय में दायर नहीं करना, रिपोर्ट लिखने में हीलहवाला करना, अमीर और शक्तिशाली व्यक्तियों के साथ सांठ-गांठ रखना, अभद्र और निर्दयी व्यवहार तथा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की शिकायत इसके अलावा अपने आपको विशिष्ट बताना. किसी भी समारोह, आयोजनों, स्थानों में अपने परिवार और महकमे के बड़े अफसरों के लिए विशेष व्यवस्था, बिना पैसा खर्च किए सुविधाआें को पाने की लालसा, दूसरे को नियमकानून का उल्लंघन करना, वर्ग विशेष की हिमायती बनकर उसके पक्ष में खड़े दिखना प्रमुख कारण दिखलाई पड़ते हैं. ऐसे बहुत से कारण हैं जो पुलिस की छवि को आम जनता की नजर में खराब करते हैं.
यह तस्वीर का एक पहलू है, तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि हमारी तमाम मुसीबत, संकट की घड़ी में पुलिस ही काम आती है. पुलिस महकमे की तमाम खराब छवि के बावजूद इस संगठन में अच्छे और कर्त्तव्यनिष्ठ लोगों की कमी नहीं है जो अपनी जान जोखिम में डालकर जानमाल की रक्षा करते हैं. यदि हम भारत सरकार के गृह मंत्रालय की वेबसाईट पर उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो पाते हैं कि वर्ष १९९१-९२ से २००० तक अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए ९३८९ पुलिसकर्मी मारे गये जो औसतन १०४३ व्यक्ति प्रतिवर्ष है. हमारे देश में औसतन ७४६ व्यक्तियों पर एक पुलिसकर्मी है. प्रत्येक जांच अधिकारी एक बार में ४५ से अधिक केस देखता है. कांस्टेबल जो पुलिस बल का ८८ प्रतिशत हिस्सा हैं को अकुशल श्रमिक समझा जाता है. इन्हें कम वेतन मिलता है और इनका सामाजिक स्तर काफी खराब है. मात्र ३७ प्रतिशत पुलिसकर्मियों के पास शासकीय आवास सुविधा उपलब्ध है. पुलिस की ड्यूटी चंूकि २४ घंटे की होती है इस कारण उन्हें अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने का अवसर भी कम मिलता है. पुलिस की पदोन्नति के अवसर कम होते हैं. उन्हें बहुत समय तक एक ही पद पर काम करना पड़ता है. अन्य शासकीय सेवकों की तरह पुलिस को अपनी जायज मांगों को उठाने के लिए हड़ताल की अनुमति नहीं है. सजा और दंड का प्रावधान होने से पुलिस बल को हमेशा अपने वरिष्ठ से डरा सहमा रहना पड़ता है. पुलिस बल के निरंतर प्रशिक्षण की व्यवस्था बहुत ही कम है. पुलिस के पास अपराधियों की तुलना में पुराने और कम आधुनिक हथियार हैं. पुलिस को निर्धारित कार्यों के अलावा बहुत से ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो परिभाषित नहीं हैं जिनका संबंध सीधे उनके काम से नहीं है. अन्य शासकीय विभागों की तुलना में सर्वाधिक राजनीतिक दबाव पुलिस को ही झेलना पड़ता है.
नए राज्य छत्तीसगढ़ की पुलिस व्यवस्था के बारे में हम बात करें तो छ.ग. विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार ६ दिसंबर २००३ से नवंबर २००४ तक राज्य में ३६० नक्सली घटनाएं हुइंर् जिसमें १४ नक्सली और ११ पुलिसकर्मी मारे गए, ३५ पुलिसकर्मी घायल हुए. इसके अलावा इस अवधि में ४६ नागरिकों की भी मृत्यु हुई है. पिछले तीन सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो हमे मालूम होगा कि वर्ष २००२ में ९ पुलिसकर्मी की मृत्यु हुई, ३७ घायल हुए. वर्ष २००३ में ३० पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई, ४१ घायल हुए. वर्ष २००४ में अक्टूबर तक विभिन्न घटनाआें में ८ पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई, ३५ घायल हुए. विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र में ७९ अधिकारी और कर्मचारियों की पदस्थापना की गई जिनमें से सिर्फ १९ ने पदभार ग्रहण किया शेष अभी तक कार्य पर उपस्थित नहीं हुए हैं. सामान्यत: यह देखने में आता है कि न केवल पुलिस बल से जुड़े अधिकारी, कर्मचारी ही नहीं बल्कि समूचा शासकीय अमला नक्सल प्रभावित क्षेत्र में अपनी पदस्थापना से डरता है. हाल ही में हुए पुलिस इंस्पेक्टर, सिपाही के अपहरण, गश्त के दौरान विस्फोट से पुलिस वाहन को उड़ा देना और नक्सलियों के साथ बड़ी संख्या में ग्रामीणों का संपर्क, किसी भी शासकीय सेवक के मनोबल को तोड़ने के लिए पर्याप्त है. इसके बावजूद बड़ी संख्या में शासकीय अमला विशेषकर पुलिस के जवान ऐसे स्थानों पर कैम्प लगाकर रहते हैं. बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए उन्हें अपने परिवार को अपने से दूर रखना पड़ता है.
सवाल यह है कि जिस पुलिस बल पर हमारी आतंरिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था, यातायात नियंत्रण सहित ऐसा वातावरण बनाए रखने की जवाबदारी है जिसमें प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के साथ रह सके, उस पुलिस बल का मनोबल कैसे बढ़ाया जाए ?
पुलिस सुधार को लेकर बहुत सारे सेमीनार, सुझाव, मार्गदर्शी सिद्धांत और सिफारिशें प्राप्त हुई हैं और होती रहती हैं. इसके बावजूद पुलिस की छवि मित्र की नहीं बन पा रही है. पुलिस सुधार के अंतर्गत जो सुझाव सिफारिश प्रमुखता से सामने आई हैं उनमें पुलिस पर गैर-कानूनी राजनीतिक और कार्यपालिका के नियंत्रण को हटाना, पुलिस को कानून के प्रति जिम्मेदार बनाना, पुलिस बल में भर्ती, प्रशिक्षण और नेतृत्व के स्तर में वृद्धि करना तथा पुलिसकर्मियों के लिए कार्य तथा सेवा शर्तों में सुधार शामिल हैं. पुलिस का मनोबल बढ़ाने और उसे समक्ष बनाने के लिए जरूरी है कि कोई मनमाना स्थानांतरण और तैनाती नहीं हो. पुलिस भर्ती में पारदर्शिता बरती जाए ताकि सबसे अच्छे व्यक्ति इस सेवा में शामिल हो सकें. ईमानदार और कुशल पुलिसकर्मियों के लिए समयबद्ध पदोन्नति का प्रावधान हो. ऐसा कार्य वातावरण तैयार किया जाए, जिसमें पुलिस बल अच्छी तरह से निर्भीक होकर अपना कार्य कर सके.
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने प्रत्येक राज्य में कानूनी तौर पर एक राज्य सुरक्षा आयोग स्थापित करने की सिफारिश की है. आयोग ने अपनी सिफारिश में पुलिस बल के कार्यकलाप के लिए व्यापक पुलिस मार्गदर्शिका बनाने, पदोन्नति के लिए एक अपीलीय मंच, वार्षिक कार्यमूल्यांकन और कार्यकलापों की सतत् रूप से समीक्षा की बात कही है. १८६१ के पुलिस अधिनियम के स्थान पर एक नया पुलिस अधिनियम बनाने की सिफारिश की गई है. यह सही है कि आम जनता द्वारा दिए गए सहयोग और समर्थन से ही पुलिस के कार्यों की सफलता निर्भर करती है. आम जनता और पुलिस के सहयोग से सामुदायिक पुलिस व्यवस्था लागू कर हम पुलिस की छवि एक मित्र की बना सकते है, जिसे लोग हर तरह की मुसीबत में सहयोग के लिए संपर्क करें.
देश के अन्य राज्यों की ही तरह छत्तीसगढ़ में भी मानव अधिकारों के उल्लंघन की सर्वाधिक शिकायतें पुलिस से ही हैं. राज्य में पुलिस हिरासत में होने वाली कथित मौतें और पुलिस ज्यादती की खबरों के बीच यह प्रश्न अनुत्तरित है कि जब पुलिसबल के लोग जानते हैं कि हिरासत में होने वाली मौत से उनकी नौकरी चली जाएगी वे गिरफ्तार हो जाएंगे, उन पर केस चलेगा, फिर वे ऐसा क्यों करते हैं ? हर बात के लिए पुलिस को दोष देना, उससे चुस्त-दुरूस्त रहकर जनसेवा की अपेक्षा रखने वाले हम लोगों का नजरिया पुलिस के प्रति कैसा है ? पुलिस किस दबाव, वातावरण और सुविधाआें के बीच काम करती है ? इस पर भी विचार करने की जरूरत है.
हमारे यहां पुलिस की छवि मित्र की कम, डराने, फंसाने वाले की अधिक है. पुलिस पावर के पर्याय के रूप में हमें दिखलाई पड़ती है, जिसका उपयोग सामान्यत: हर सत्ताधारी दल अपने हिसाब से करना चाहता है. किसी भी गांव, देहात, कस्बे और शहर में सरकार के सत्तारूपी चेहरे के रूप में पटवारी, पुलिस पर पहले नजर पड़ती है. चूंकि दोनों का ही सीधा संबंध आम-जनता से रहता है और दोनों ही कहीं-न-कहीं सीधे लाभ-हानि से जुड़े होते हैं इसलिए इनसे मिलते बातचीत और व्यवहार करते समय आदमी की भावमुद्रा अन्य शासकीय सेवकों की तुलना में थोड़ी अलग होती है.
हम पुलिस की बात करें तो पाते हैं कि लोग पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी अच्छी, सीख के साथ हमें मिलते हैं. जब तक काम न हो, मुसीबत ना आए या पुलिस खुद न पकड़ ले, बुला ले तब तक सामान्यत: लोग पुलिस से दूर रहते हैं. यदि किसी के घर अचानक कोई पुलिसकर्मी आ जाए तो आसपास के लोग उसे संशय से देखकर खुसरपुसर करने लगते हैं. सवाल यह है कि जो व्यक्ति कल तक हमारे जैसा ही था, जिसके दुख-दर्द, संवेदनाएं, हंसी-खुशी सब कुछ हमारे जैसी थी वह व्यक्ति वर्दी पहनते ही कैसे बदल जाता है ?
पुलिस के प्रति अविश्वास के कारणों की यदि हम पड़ताल करें तो हमें इसके ऐतिहासिक कारण भी दिखलाई पड़ते हैं. भारत में पुलिस संगठन की स्थापना विद्रोह को दबाने और हमारे विदेशी शासकों के हितों को पूरा करने के लिए १८५७ के भारतीय गदर के बाद की गई थी जिससे जनता के मन में पुलिस के प्रति नकारात्मक भाव पैदा हुआ वह अविश्वास और नफरत का भाव हमें आजादी प्राप्ति के ५६ साल बाद भी दिखलाई पड़ता है.
पुलिस की खराब छवि के कारणों की पड़ताल की जाए तो जो मुख्य कारण हमें दिखलाई पड़ते हैं वे हैं पुलिस हमेशा शासक वर्ग के बचाव में खड़ी दिखती है जिसके कारण उसे शासक वर्ग की इच्छा, निर्देशों के अनुरूप काम करना पड़ता है. चाहे फिर वह जनभावना के विपरीत ही क्यों न हो. जो प्रकरण पुलिस द्वारा तैयार किए जाते हैं, उन्हें समय पर न्यायालय में दायर नहीं करना, रिपोर्ट लिखने में हीलहवाला करना, अमीर और शक्तिशाली व्यक्तियों के साथ सांठ-गांठ रखना, अभद्र और निर्दयी व्यवहार तथा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की शिकायत इसके अलावा अपने आपको विशिष्ट बताना. किसी भी समारोह, आयोजनों, स्थानों में अपने परिवार और महकमे के बड़े अफसरों के लिए विशेष व्यवस्था, बिना पैसा खर्च किए सुविधाआें को पाने की लालसा, दूसरे को नियमकानून का उल्लंघन करना, वर्ग विशेष की हिमायती बनकर उसके पक्ष में खड़े दिखना प्रमुख कारण दिखलाई पड़ते हैं. ऐसे बहुत से कारण हैं जो पुलिस की छवि को आम जनता की नजर में खराब करते हैं.
यह तस्वीर का एक पहलू है, तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि हमारी तमाम मुसीबत, संकट की घड़ी में पुलिस ही काम आती है. पुलिस महकमे की तमाम खराब छवि के बावजूद इस संगठन में अच्छे और कर्त्तव्यनिष्ठ लोगों की कमी नहीं है जो अपनी जान जोखिम में डालकर जानमाल की रक्षा करते हैं. यदि हम भारत सरकार के गृह मंत्रालय की वेबसाईट पर उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो पाते हैं कि वर्ष १९९१-९२ से २००० तक अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए ९३८९ पुलिसकर्मी मारे गये जो औसतन १०४३ व्यक्ति प्रतिवर्ष है. हमारे देश में औसतन ७४६ व्यक्तियों पर एक पुलिसकर्मी है. प्रत्येक जांच अधिकारी एक बार में ४५ से अधिक केस देखता है. कांस्टेबल जो पुलिस बल का ८८ प्रतिशत हिस्सा हैं को अकुशल श्रमिक समझा जाता है. इन्हें कम वेतन मिलता है और इनका सामाजिक स्तर काफी खराब है. मात्र ३७ प्रतिशत पुलिसकर्मियों के पास शासकीय आवास सुविधा उपलब्ध है. पुलिस की ड्यूटी चंूकि २४ घंटे की होती है इस कारण उन्हें अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने का अवसर भी कम मिलता है. पुलिस की पदोन्नति के अवसर कम होते हैं. उन्हें बहुत समय तक एक ही पद पर काम करना पड़ता है. अन्य शासकीय सेवकों की तरह पुलिस को अपनी जायज मांगों को उठाने के लिए हड़ताल की अनुमति नहीं है. सजा और दंड का प्रावधान होने से पुलिस बल को हमेशा अपने वरिष्ठ से डरा सहमा रहना पड़ता है. पुलिस बल के निरंतर प्रशिक्षण की व्यवस्था बहुत ही कम है. पुलिस के पास अपराधियों की तुलना में पुराने और कम आधुनिक हथियार हैं. पुलिस को निर्धारित कार्यों के अलावा बहुत से ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो परिभाषित नहीं हैं जिनका संबंध सीधे उनके काम से नहीं है. अन्य शासकीय विभागों की तुलना में सर्वाधिक राजनीतिक दबाव पुलिस को ही झेलना पड़ता है.
नए राज्य छत्तीसगढ़ की पुलिस व्यवस्था के बारे में हम बात करें तो छ.ग. विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार ६ दिसंबर २००३ से नवंबर २००४ तक राज्य में ३६० नक्सली घटनाएं हुइंर् जिसमें १४ नक्सली और ११ पुलिसकर्मी मारे गए, ३५ पुलिसकर्मी घायल हुए. इसके अलावा इस अवधि में ४६ नागरिकों की भी मृत्यु हुई है. पिछले तीन सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो हमे मालूम होगा कि वर्ष २००२ में ९ पुलिसकर्मी की मृत्यु हुई, ३७ घायल हुए. वर्ष २००३ में ३० पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई, ४१ घायल हुए. वर्ष २००४ में अक्टूबर तक विभिन्न घटनाआें में ८ पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई, ३५ घायल हुए. विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र में ७९ अधिकारी और कर्मचारियों की पदस्थापना की गई जिनमें से सिर्फ १९ ने पदभार ग्रहण किया शेष अभी तक कार्य पर उपस्थित नहीं हुए हैं. सामान्यत: यह देखने में आता है कि न केवल पुलिस बल से जुड़े अधिकारी, कर्मचारी ही नहीं बल्कि समूचा शासकीय अमला नक्सल प्रभावित क्षेत्र में अपनी पदस्थापना से डरता है. हाल ही में हुए पुलिस इंस्पेक्टर, सिपाही के अपहरण, गश्त के दौरान विस्फोट से पुलिस वाहन को उड़ा देना और नक्सलियों के साथ बड़ी संख्या में ग्रामीणों का संपर्क, किसी भी शासकीय सेवक के मनोबल को तोड़ने के लिए पर्याप्त है. इसके बावजूद बड़ी संख्या में शासकीय अमला विशेषकर पुलिस के जवान ऐसे स्थानों पर कैम्प लगाकर रहते हैं. बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए उन्हें अपने परिवार को अपने से दूर रखना पड़ता है.
सवाल यह है कि जिस पुलिस बल पर हमारी आतंरिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था, यातायात नियंत्रण सहित ऐसा वातावरण बनाए रखने की जवाबदारी है जिसमें प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के साथ रह सके, उस पुलिस बल का मनोबल कैसे बढ़ाया जाए ?
पुलिस सुधार को लेकर बहुत सारे सेमीनार, सुझाव, मार्गदर्शी सिद्धांत और सिफारिशें प्राप्त हुई हैं और होती रहती हैं. इसके बावजूद पुलिस की छवि मित्र की नहीं बन पा रही है. पुलिस सुधार के अंतर्गत जो सुझाव सिफारिश प्रमुखता से सामने आई हैं उनमें पुलिस पर गैर-कानूनी राजनीतिक और कार्यपालिका के नियंत्रण को हटाना, पुलिस को कानून के प्रति जिम्मेदार बनाना, पुलिस बल में भर्ती, प्रशिक्षण और नेतृत्व के स्तर में वृद्धि करना तथा पुलिसकर्मियों के लिए कार्य तथा सेवा शर्तों में सुधार शामिल हैं. पुलिस का मनोबल बढ़ाने और उसे समक्ष बनाने के लिए जरूरी है कि कोई मनमाना स्थानांतरण और तैनाती नहीं हो. पुलिस भर्ती में पारदर्शिता बरती जाए ताकि सबसे अच्छे व्यक्ति इस सेवा में शामिल हो सकें. ईमानदार और कुशल पुलिसकर्मियों के लिए समयबद्ध पदोन्नति का प्रावधान हो. ऐसा कार्य वातावरण तैयार किया जाए, जिसमें पुलिस बल अच्छी तरह से निर्भीक होकर अपना कार्य कर सके.
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने प्रत्येक राज्य में कानूनी तौर पर एक राज्य सुरक्षा आयोग स्थापित करने की सिफारिश की है. आयोग ने अपनी सिफारिश में पुलिस बल के कार्यकलाप के लिए व्यापक पुलिस मार्गदर्शिका बनाने, पदोन्नति के लिए एक अपीलीय मंच, वार्षिक कार्यमूल्यांकन और कार्यकलापों की सतत् रूप से समीक्षा की बात कही है. १८६१ के पुलिस अधिनियम के स्थान पर एक नया पुलिस अधिनियम बनाने की सिफारिश की गई है. यह सही है कि आम जनता द्वारा दिए गए सहयोग और समर्थन से ही पुलिस के कार्यों की सफलता निर्भर करती है. आम जनता और पुलिस के सहयोग से सामुदायिक पुलिस व्यवस्था लागू कर हम पुलिस की छवि एक मित्र की बना सकते है, जिसे लोग हर तरह की मुसीबत में सहयोग के लिए संपर्क करें.
बच्चों के साथ मानवीय व्यवहार जरूरी
शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत छात्र-छात्राआें विशेषकर छोटे बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार, मारपीट और अनेक तरह की प्रताड़ना के मामले बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं. अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ मानव अधिकार के समक्ष चार ऐसे मामले आए हैं जो हमें यह सोचने पर विवश करते हैं कि शिक्षण संस्थाआें में छात्रों और शिक्षकों के बीच किस तरह के संबंध होना चाहिए. क्या पढ़ाई-लिखाई, अनुशासन बनाए रखने के लिए शिक्षकों द्वारा छात्र-छात्राआें के साथ मारपीट कक्षा से बाहर निकाल देना, परीक्षा में बैठने से वंचित करना, इस हद तक उठक-बैठक लगवाना कि छात्र बेहोश होकर गिर जाए या फिर होमवर्क करके नहीं अपने वाले छात्रों को इतना पीटा जाए कि उनकी मृत्यु तक हो जाए.
बस्तर के एक शिक्षाकर्मी द्वारा कक्षा में नहीं आने पर एक छात्र की हत्या, शहडोल में शिक्षक द्वारा छात्रों को होमवर्क नहीं करने पर मृत्युदंड तथा चांपा-जांजगीर में एक छात्र को तीन सौ उठक-बैठक लगवाकर अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में पहुंचाना. भोपाल के एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में अध्ययनरत मास्टर गृुल्लर को हिन्दी में बात करने पर `मैं गधा हूं' जैसी तख्ती लटकाकर स्कूल में घुमाना ऐसी बहुत-सी घटनाएं हैं जो हमें अपनी शिक्षा प्रणाली, शिक्षण संस्थाआें के माहौल और छात्र-शिक्षक संबंधों की नए सिरे से पड़ताल के लिए विवश करती हैं.
छत्तीसगढ़ मानव अधिकार आयोग ने हाल ही में चांपा-जांजगीर जिले के ग्राम जैजेपुर में एक शिक्षिका द्वारा होमवर्क करके नहीं आने पर एक छात्र से तीन सौ बार उठक-बैठक लगवाकर बीमार होने के हद तक प्रताड़ित करने का मामला पंजीबद्ध किया. कोरबा जिले के एक स्कूल में शिक्षक द्वारा अध्ययनरत छात्राआें से अश्लीन हरकत, रायपुर के टाटीबंध स्थित स्कूल में विलंब से पहुंचने वाली छात्राआें को छमाही परीक्षा में बैठने से वंचित करना जैसे मामले आयोग के समक्ष आए हैं. कुछ अभिभावकों ने अपना नाम गुप्त रखते हुए शिकायत की है तो कुछ ने आयोग के समक्ष आकर अपना दुखड़ा रोया है.
अधिकांश शिक्षक इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि बच्चों के साथ मारपीट करना कानूनी दंडनीय अपराध है. बाल अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय १९८९ के तहत् बच्चों के अधिकारों को विस्तृत रूप से परिभाषित करते हुए जो प्रावधान किए गये हैं उसे भारत सरकार ने स्वीकार करते हुए कहा है कि बच्चों को स्वास्थ्य तरीके और स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने का अवसर दिया जाएगा. बच्चे से तात्पर्य १८ वर्ष से कम के प्रत्येक मनुष्य से है. अनुच्छेद २८ और २९ के अनुसार बच्चे के व्यक्तित्व, प्रतिभाआें तथा मानसिक और शारीरिक योग्यताआें का पूर्ण विकास तथा स्कूल में अनुशासन लागू करने के तरीके बच्चे की मानवीय गरिमा के अनुकूल होना चाहिए. इसके बावजूद बहुत सारे स्कूलों में बच्चों के साथ मारपीट आम बात है. बच्चों को हिन्दी या अंग्रेजी बोलने पर प्रताड़ित करना, स्कूल में टिफिन नहीं खाने देना, आर्थिक दंड लगाना, दिनभर दीवाल के कोने में या दरवाजे के बाहर खड़ा रखना, उकडूूं या मूर्गा बनाकर खड़ा करना, उठक-बैठक लगवाना, जरा-सी नाराजगी पर छात्र-छात्राआें को थप्पड़ मारना, आम शिकायत है. आजकल स्कूल कॉलेज के बच्चों के बीच इंटरनेट, मोबाइल कैमरा जैसी नई तकनीक काफी लोकप्रिय है जिसके चलते बहुत सारे धनाढ्य वर्ग के छात्र-छात्रा स्कूलों, कॉलेजों में नए इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को लेकर पहुंचते हैं और फिर उनके जरिये गंदे-गंदे एस.एम.एस., फोटोग्राफ, वीडियो क्लिपिंग का अदान-प्रदान होता है.
बहुत से माता-पिता अपने बच्चों के माध्यम से अपने अधूरे सपने को पूरा करना चाहते हैं. वे जो नहीं बन पाए अपने बच्चों को वे वह बनाना चाहते हैं, उनके लिए बच्चों की जिज्ञासाएं, सहज सपने कोई मायने नहीं रखते. सुबह से शाम तक बच्चों को रोबोट की तरह चाबी से चलाने वाले अभिभावक अनजाने में ही कई बार बच्चों से उनका बचपन छीन लेते हैं. बच्चे अपनी जिज्ञासाएं, अपने भीतर की मस्ती और शैतानी, स्कूल के अपने-अपने दोस्त के साथ शेयर करते हैं, जिन्हें बच्चों के मां-बाप नहीं जानते. चूंकि स्कूल में साथ पढ़ने वाले छात्र-छात्रा अलग-अलग परिवेश, पर्यावरण और संस्कारों से आते हैं ऐसे में बच्चे के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि वह किसका अनुसरण करे. घर में टी.वी., कॉमिक्स, पत्र-पत्रिकाएं और स्कूल के शिक्षक और उनका मित्र, आस-पड़ोस, माता-पिता, सहपाठी किसके बीच में से वह अपने लिए रोल मॉडल चुने.
आज के शिक्षकों के सामने छात्र-छात्राआें को गुरू-शिष्य को परस्पर बांधे रखना सबसे बड़ी चुनौती है. आधुनिक संचार प्रणाली और एक-दूसरे से श्रेष्ठ दिखने, कुछ अलग करने तथा उच्छृंखलता भरे माहौल में शिक्षण संस्थाआें की कथित पवित्रता और अनुशासन को बनाए रखना परंपरागत तरीके के लिए मुश्किल हो रहा है. शिक्षण संस्थान में अपने आदेश का पालन होते न देख या फिर अनुशासन की पकड़ को कमजोर होता देख बहुत से शिक्षक विचलित हो जाते हैं और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो अनअपेक्षित/अमानवीय है.
बहुत से शिक्षकों का तर्क है कि बच्चे यदि होमवर्क करके नहीं आते, समय पर स्कूल नहीं पहंुचते, पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और स्कूल के अनुशासन को तोड़ते हैं तो उन्हें मारना लाजमी है. उन्हें ऐसे समय तुलसीदास की वह शिक्षा याद आती है जिसमें कहा जाता है कि भय बिन प्रीत न होये गोंसाई. सूचना क्रांति के युग में मानव अधिकार के जानकार छात्र-छात्रा और बहुत-से अभिभावकों को यह व्यवहार बिलकुल भी पसंद नहीं है. अमेरिका, यूरोप या फिर बच्चों के मनोविज्ञान से परिचित ऐसे बच्चों या अभिभावकों का एक बड़ा वर्ग स्कूल हिंसा, मारपीट के खिलाफ शिकायत करता है. बच्चे भी मारपीट करने वाले, हमेशा उलहाना देने या बेइज्जत करने वाले शिक्षक-शिक्षिकाआें का सम्मान नहीं करते. शिक्षक/शिक्षिका के क्लास में आते ही बच्चों की आंखों में एक अलग किस्म की नफरत या भय का भाव होता है जो शिक्षक के हटते ही उपहास या मजाक में तब्दील हो जाता है.
बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले मनोचिकित्सक कहते हैं कि हर बच्चा आइंस्टीन नहीं हो सकता. क्लास में पढ़ने वाले सभी बच्चों का आईक्यु अलग-अलग होता है. सभी बच्चों से एक-सी अपेक्षा करना ठीक नहीं है. मनोवैज्ञानिक नियमित रूप से पेरेंट टीचर मीटिंग पर जोर देते हुए कहते हैं कि यदि बच्चे से किसी भी प्रकार की शिकायत है तो उसके अभिभावकों को सूचित कर उनके माध्यम से प्राब्लम को हल करना चाहिए. माह में एक दिन सभी अभिभावकों की मौजूदगी में मीटिंग होनी चाहिए. डॉक्टरों का मानना है कि शिक्षकों की समय-समय पर ट्रेनिंग होना चाहिए उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि बिना मारपीट के भी अलग-अलग टेक्नीक से बच्चों को पढ़ाया-लिखाया जा सकता है. कई बार बच्चे स्कूल में होने वाली मारपीट से अपने पूरे एटिट्यूट को नेगेटिव बना लेते हैं. कई बच्चे होमवर्क, पढ़ाई, परीक्षा आदि के भय से घर से भाग जाते हैं, कई बच्चे असफलता के कारण आत्महत्या कर लेते हैं.
बच्चों का अच्छी ढंग से लालन-पालन और शिक्षण माता-पिता और शिक्षकों के आपसी तालमेल से ही संभव है. बहुत सारे मां-बाप तो शिक्षकों को इस बात का अधिकार सहर्ष दे देते हैं कि उनके बच्चे मारपीट करें तो कोई मुरब्बत न करें, जरूरी पड़े तो अच्छी पिटाई भी करें. बहुत सारे मां-बाप प्रतिस्पर्धा के चक्कर में पड़कर अपने बच्चे को हमेशा हर क्षेत्र में अव्वल ही लाना चाहते हैं. कुछ अभिभावक अपने बच्चों की गतिविधियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर उन्हें स्कूल, कॉलेज, छात्रावास के भरोसे छोड़कर निश्चित हो जाते हैं. नाबालिग बच्चों को मोबाइल, मोटरसाइकिल और बड़ी मात्रा में जेब खर्च देने वाले मां-बाप इस बात से बेखबर रहते हैं कि उनका बच्चा जिस संस्थान में पढ़ रहा है वहां सभी बच्चे एक से नहीं हैं, बच्चों में यहीं से ऊं च-नीच, अमीर-गरीब और अहम् की भावना विकसित होती है.
जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावक भी इस बात का ध्यान रखें कि उनका बच्चा किस तरह की अपेक्षा करता है, उसका व्यवहार कैसा है, उसकी वाजिब जरूरतें क्या हैं, वह पढ़ाई का कितना बोझ सह सकता है ? क्लास में सभी बच्चे फर्स्ट क्लास पास नहीं आ सकते. बच्चों को केवल डरा, धमका, मारपीट करके ही नहीं सुधारा जा सकता बल्कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखकर उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हें वे ही सुविधाएं, साधन उपलब्ध कराएं जो उनके व्यक्तित्व विकास, पढ़ाई-लिखाई और बेहतर नागरिक बनाने के लिए जरूरी हैं.
बस्तर के एक शिक्षाकर्मी द्वारा कक्षा में नहीं आने पर एक छात्र की हत्या, शहडोल में शिक्षक द्वारा छात्रों को होमवर्क नहीं करने पर मृत्युदंड तथा चांपा-जांजगीर में एक छात्र को तीन सौ उठक-बैठक लगवाकर अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में पहुंचाना. भोपाल के एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में अध्ययनरत मास्टर गृुल्लर को हिन्दी में बात करने पर `मैं गधा हूं' जैसी तख्ती लटकाकर स्कूल में घुमाना ऐसी बहुत-सी घटनाएं हैं जो हमें अपनी शिक्षा प्रणाली, शिक्षण संस्थाआें के माहौल और छात्र-शिक्षक संबंधों की नए सिरे से पड़ताल के लिए विवश करती हैं.
छत्तीसगढ़ मानव अधिकार आयोग ने हाल ही में चांपा-जांजगीर जिले के ग्राम जैजेपुर में एक शिक्षिका द्वारा होमवर्क करके नहीं आने पर एक छात्र से तीन सौ बार उठक-बैठक लगवाकर बीमार होने के हद तक प्रताड़ित करने का मामला पंजीबद्ध किया. कोरबा जिले के एक स्कूल में शिक्षक द्वारा अध्ययनरत छात्राआें से अश्लीन हरकत, रायपुर के टाटीबंध स्थित स्कूल में विलंब से पहुंचने वाली छात्राआें को छमाही परीक्षा में बैठने से वंचित करना जैसे मामले आयोग के समक्ष आए हैं. कुछ अभिभावकों ने अपना नाम गुप्त रखते हुए शिकायत की है तो कुछ ने आयोग के समक्ष आकर अपना दुखड़ा रोया है.
अधिकांश शिक्षक इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि बच्चों के साथ मारपीट करना कानूनी दंडनीय अपराध है. बाल अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय १९८९ के तहत् बच्चों के अधिकारों को विस्तृत रूप से परिभाषित करते हुए जो प्रावधान किए गये हैं उसे भारत सरकार ने स्वीकार करते हुए कहा है कि बच्चों को स्वास्थ्य तरीके और स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने का अवसर दिया जाएगा. बच्चे से तात्पर्य १८ वर्ष से कम के प्रत्येक मनुष्य से है. अनुच्छेद २८ और २९ के अनुसार बच्चे के व्यक्तित्व, प्रतिभाआें तथा मानसिक और शारीरिक योग्यताआें का पूर्ण विकास तथा स्कूल में अनुशासन लागू करने के तरीके बच्चे की मानवीय गरिमा के अनुकूल होना चाहिए. इसके बावजूद बहुत सारे स्कूलों में बच्चों के साथ मारपीट आम बात है. बच्चों को हिन्दी या अंग्रेजी बोलने पर प्रताड़ित करना, स्कूल में टिफिन नहीं खाने देना, आर्थिक दंड लगाना, दिनभर दीवाल के कोने में या दरवाजे के बाहर खड़ा रखना, उकडूूं या मूर्गा बनाकर खड़ा करना, उठक-बैठक लगवाना, जरा-सी नाराजगी पर छात्र-छात्राआें को थप्पड़ मारना, आम शिकायत है. आजकल स्कूल कॉलेज के बच्चों के बीच इंटरनेट, मोबाइल कैमरा जैसी नई तकनीक काफी लोकप्रिय है जिसके चलते बहुत सारे धनाढ्य वर्ग के छात्र-छात्रा स्कूलों, कॉलेजों में नए इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को लेकर पहुंचते हैं और फिर उनके जरिये गंदे-गंदे एस.एम.एस., फोटोग्राफ, वीडियो क्लिपिंग का अदान-प्रदान होता है.
बहुत से माता-पिता अपने बच्चों के माध्यम से अपने अधूरे सपने को पूरा करना चाहते हैं. वे जो नहीं बन पाए अपने बच्चों को वे वह बनाना चाहते हैं, उनके लिए बच्चों की जिज्ञासाएं, सहज सपने कोई मायने नहीं रखते. सुबह से शाम तक बच्चों को रोबोट की तरह चाबी से चलाने वाले अभिभावक अनजाने में ही कई बार बच्चों से उनका बचपन छीन लेते हैं. बच्चे अपनी जिज्ञासाएं, अपने भीतर की मस्ती और शैतानी, स्कूल के अपने-अपने दोस्त के साथ शेयर करते हैं, जिन्हें बच्चों के मां-बाप नहीं जानते. चूंकि स्कूल में साथ पढ़ने वाले छात्र-छात्रा अलग-अलग परिवेश, पर्यावरण और संस्कारों से आते हैं ऐसे में बच्चे के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि वह किसका अनुसरण करे. घर में टी.वी., कॉमिक्स, पत्र-पत्रिकाएं और स्कूल के शिक्षक और उनका मित्र, आस-पड़ोस, माता-पिता, सहपाठी किसके बीच में से वह अपने लिए रोल मॉडल चुने.
आज के शिक्षकों के सामने छात्र-छात्राआें को गुरू-शिष्य को परस्पर बांधे रखना सबसे बड़ी चुनौती है. आधुनिक संचार प्रणाली और एक-दूसरे से श्रेष्ठ दिखने, कुछ अलग करने तथा उच्छृंखलता भरे माहौल में शिक्षण संस्थाआें की कथित पवित्रता और अनुशासन को बनाए रखना परंपरागत तरीके के लिए मुश्किल हो रहा है. शिक्षण संस्थान में अपने आदेश का पालन होते न देख या फिर अनुशासन की पकड़ को कमजोर होता देख बहुत से शिक्षक विचलित हो जाते हैं और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो अनअपेक्षित/अमानवीय है.
बहुत से शिक्षकों का तर्क है कि बच्चे यदि होमवर्क करके नहीं आते, समय पर स्कूल नहीं पहंुचते, पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और स्कूल के अनुशासन को तोड़ते हैं तो उन्हें मारना लाजमी है. उन्हें ऐसे समय तुलसीदास की वह शिक्षा याद आती है जिसमें कहा जाता है कि भय बिन प्रीत न होये गोंसाई. सूचना क्रांति के युग में मानव अधिकार के जानकार छात्र-छात्रा और बहुत-से अभिभावकों को यह व्यवहार बिलकुल भी पसंद नहीं है. अमेरिका, यूरोप या फिर बच्चों के मनोविज्ञान से परिचित ऐसे बच्चों या अभिभावकों का एक बड़ा वर्ग स्कूल हिंसा, मारपीट के खिलाफ शिकायत करता है. बच्चे भी मारपीट करने वाले, हमेशा उलहाना देने या बेइज्जत करने वाले शिक्षक-शिक्षिकाआें का सम्मान नहीं करते. शिक्षक/शिक्षिका के क्लास में आते ही बच्चों की आंखों में एक अलग किस्म की नफरत या भय का भाव होता है जो शिक्षक के हटते ही उपहास या मजाक में तब्दील हो जाता है.
बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले मनोचिकित्सक कहते हैं कि हर बच्चा आइंस्टीन नहीं हो सकता. क्लास में पढ़ने वाले सभी बच्चों का आईक्यु अलग-अलग होता है. सभी बच्चों से एक-सी अपेक्षा करना ठीक नहीं है. मनोवैज्ञानिक नियमित रूप से पेरेंट टीचर मीटिंग पर जोर देते हुए कहते हैं कि यदि बच्चे से किसी भी प्रकार की शिकायत है तो उसके अभिभावकों को सूचित कर उनके माध्यम से प्राब्लम को हल करना चाहिए. माह में एक दिन सभी अभिभावकों की मौजूदगी में मीटिंग होनी चाहिए. डॉक्टरों का मानना है कि शिक्षकों की समय-समय पर ट्रेनिंग होना चाहिए उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि बिना मारपीट के भी अलग-अलग टेक्नीक से बच्चों को पढ़ाया-लिखाया जा सकता है. कई बार बच्चे स्कूल में होने वाली मारपीट से अपने पूरे एटिट्यूट को नेगेटिव बना लेते हैं. कई बच्चे होमवर्क, पढ़ाई, परीक्षा आदि के भय से घर से भाग जाते हैं, कई बच्चे असफलता के कारण आत्महत्या कर लेते हैं.
बच्चों का अच्छी ढंग से लालन-पालन और शिक्षण माता-पिता और शिक्षकों के आपसी तालमेल से ही संभव है. बहुत सारे मां-बाप तो शिक्षकों को इस बात का अधिकार सहर्ष दे देते हैं कि उनके बच्चे मारपीट करें तो कोई मुरब्बत न करें, जरूरी पड़े तो अच्छी पिटाई भी करें. बहुत सारे मां-बाप प्रतिस्पर्धा के चक्कर में पड़कर अपने बच्चे को हमेशा हर क्षेत्र में अव्वल ही लाना चाहते हैं. कुछ अभिभावक अपने बच्चों की गतिविधियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर उन्हें स्कूल, कॉलेज, छात्रावास के भरोसे छोड़कर निश्चित हो जाते हैं. नाबालिग बच्चों को मोबाइल, मोटरसाइकिल और बड़ी मात्रा में जेब खर्च देने वाले मां-बाप इस बात से बेखबर रहते हैं कि उनका बच्चा जिस संस्थान में पढ़ रहा है वहां सभी बच्चे एक से नहीं हैं, बच्चों में यहीं से ऊं च-नीच, अमीर-गरीब और अहम् की भावना विकसित होती है.
जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावक भी इस बात का ध्यान रखें कि उनका बच्चा किस तरह की अपेक्षा करता है, उसका व्यवहार कैसा है, उसकी वाजिब जरूरतें क्या हैं, वह पढ़ाई का कितना बोझ सह सकता है ? क्लास में सभी बच्चे फर्स्ट क्लास पास नहीं आ सकते. बच्चों को केवल डरा, धमका, मारपीट करके ही नहीं सुधारा जा सकता बल्कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखकर उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हें वे ही सुविधाएं, साधन उपलब्ध कराएं जो उनके व्यक्तित्व विकास, पढ़ाई-लिखाई और बेहतर नागरिक बनाने के लिए जरूरी हैं.
मुक्तिबोध साहित्यपीठ से शोध
राज्य सरकार ने हाल ही में गजानन माधव मुक्तिबोध को लेकर दो महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिनकी साहित्य जगत में बहुत ही प्रशंसा हो रही है. राजनांदगांव स्थित दिग्विजय कॉलेज जहां मुक्तिबोध रहा करते थे और जहां रहकर उन्होंने साहित्य साधना की उस स्थान का जीर्णोद्धार कर वहां अध्ययन केंद्र की स्थापना साथ ही दिग्विजय कॉलेज प्रांगण में ही मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और बलदेव प्रसाद मिश्र की मूर्ति की स्थापना. इसके अलावा प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने हाल ही में राजनांदगांव में मुक्तिबोध साहित्यपीठ स्थापित करने की भी घोषणा की है. मुक्तिबोध स्मारक समिति का गठन करने उनके समकालीन श्री शरद कोठारी, रमेश याज्ञिक जैसे लोगों को समिति में रखकर उनके सुझाव अनुसार स्मारक के रखरखाव की पहल की गई है.
मालवा के पठारों में पैदा हुए एक मामूली आदमी, जिसने एक मामूली जीवन जिया और एक दुखद मृत्यु में जिनके जीवन की पीड़ाआें का अंत हुआ ऐसे गजानन माधव मुक्तिबोध ने जुलाई १९५८ से राजनांदगांव को अपना कार्यक्षेत्र बनाया. राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज के सेके्रटरी पंड़ित किशोरी लाल शुक्ल ने मुक्तिबोध को नौकरी का इंटरव्यू लेते समय एक शर्त रखी थी ``आप अपने मार्क्सवादी सिंद्धात के प्रति आस्था रख सकते हैं और इस लिहाज से वहां कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन विद्यार्थियों पर आप अपनी वामपंथी विचारधारा को थोपने का कदाचित आग्रह नहीं रखेंगे.'' मुक्तिबोध ने राजनांदगांव में रहने के लिए शुक्ल जी की यह सलाह मान ली क्योंकि मुक्तिबोध का मानना था कि ``मार्क्सवाद थोपकर किसी को कम्युनिस्ट बनाने की दलील को ही गलत मानता रहा है.'' मुक्तिबोध, प्रोफेसर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ कॉलेज की नौकरी करते हुए राजनांदगांव में कामरेड माधवी राय और प्रकाश राव ने एक साथ मिलकर कामगारों के बीच उठना-बैठना प्लान किया और उनके जीवन और उनकी जुड़ी तकलीफों को नजदीक से देखा. बकौल मुक्तिबोध, ``अंधेरा बढ़ जाने पर मैं राजनांदगांव की एक झोंपड़ी में बीड़ी मजदूरों को क्रांति की कहानी सुनाया करता. स्थानीय साथियों ने बीड़ी यूनियन की महिलाआें को पढ़ाने की जिम्मेदारी मुझे दी है. कभी मैं गोर्की की आत्मकथा, कभी जूलियस फ्यूचिक की फांसी के तख्ते से पुस्तक की कहानी सुनाया करता, कभी मार्क्स या लेनिन, यशपाल, आजाद भगत सिंह, भारद्वाज की जीवनी सुनाता.''
१३ नवंबर, १९१७ को श्योपरु ग्वालियर में पैदा हुए मुक्तिबोध का ११ सितंबर १९६४ को लंबी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया. मुक्तिबोध १९५८ से अपने जीवन की लंबी लड़ाई लड़ते समय तक राजनांदगांव में रहे. दिग्विजय कॉलेज की घुमावदार सीढ़ियां, उसके आसपास का वातावरण उनकी कविता में आने वाले बिम्ब के रूप में जगह-जगह उपस्थित हैं. मुक्तिबोध को दुरूह और क्लिसष्ट कवि मानने वाले लोगों ने बहुत बाद में मुक्तिबोध के कवि, समीक्षक को समझा. मुक्तिबोध के शब्दों में ``जिंदगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है वह एक प्रायमरी स्कूल है जहां टाट पट्टी पर बैठना पड़ता है. जरा-सी बात पर चांटे के आघात पर चांटों की संवेदनाएं गालों पर झेलनी पड़ती हैं. जी हां, इस जिंदगी का यही हाल है. भय, आतंक, उचित आशंकाएं, अजीबोगरीब उलझाव.''
लेखक बिरादरी लंबे समय से यह मांग करती रही है कि दिग्विजय कॉलेज के उस मकान को मुक्तिबोध स्मारण घोषित किया जाए जहां मुक्तिबोध रहा करते थे. राज्य सरकार द्वारा मुक्तिबोध के निवास को स्मारक घोषित करके वहां जो अध्ययन केंद्र, लायब्रेरी बनाने का निर्णय लिया गया है उसकी सार्थकता तब और अधिक बढ़ जाएगी जब इस अध्ययन केंद्र में समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों को बुलाकर सेमीनार, गोष्ठी, व्याख्यान आयोजित किए जाए. वैसे तो मुक्तिबोध की रचनाआें पर बहुत से शोध स्वतंत्र रूप सें हुए हैं किंतु इस केंद्र के माध्यम से शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए मुक्तिबोध के नाम शोधमुक्ति दी जाकर मुक्तिबोध संबंधी अध्ययन को प्रोत्साहित किया जा सकता है. इससे शोधार्थियों को मुक्तिबोध को समझने और उनके अध्ययन को नई दिशा मिल सकेगी. मुक्तिबोध ने जहां बैठकर अपना रचना संसार रचा है उसमें जो बिम्ब, वातावरण उपस्थित है उसे समझने का मौका यहां आकर शोधार्थियों को मिलेगा. कविता के नए बिंब खुलेंगे. मुक्तिबोध किस तरह के बिम्ब रचते थे उसका आभास होगा. मुक्तिबोध कहा करते थे, ``यदि लेखक ईमानदार है तो उसे अपने प्रति और अपने युग के प्रति अधिक उत्तरदायी होना होगा. उसे अपनी सौंदर्याभिरूचि के सेंसर्स जरा ढीले करने होंगे, विषय संकलन को स्वानुभूत विवेक के विश्व चेतस हाथों में सौंपना होगा, अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने के लिए अथक प्रयास करना होगा. अधिक साहस और हिम्मत से काम लेना जरूरी है.''
मुक्तिबोध के नाम से स्थापित होने वाली साहित्यपीठ का अध्यक्ष किसी प्रतिष्ठत साहित्यकार को बनाया जाना चाहिए. मध्यप्रदेश के सागर विश्वविद्यालय में १९८४-८५ में स्थापित मुक्तिबोध शोधपीठ के सबसे पहले अध्यक्ष हरिशंकर परसाई थे उनके बाद कवि त्रिलोचन इस पीठ के अध्यक्ष बने और लंबे समय तक रहे. परसाई जी और त्रिलोचन के सागर में रहने का लाभ वहां की साहित्य बिरादरी को मिला. मुक्तिबोध के नाम से राजनांदगांव में स्थापित होने वाली साहित्यपीठ को पूरी स्वायत्ता दी जानी चाहिए. इस तरह की पीठ में किसी भी प्रकार का प्रशासकीय हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. सागर में स्थापित पीठ स्वायत्ता और वित्तीय प्रबंधन नहीं होने की वजह से बहुत सालों तक निर्जीव-सी पड़ी रही. इसकी पुनरावृत्ति यहां नहीं होनी चाहिए.
पंड़ित जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी की स्थापना के समय कला, साहित्य की संस्थाआें को कलाकार, साहित्यकार ही पूरी स्वायत्ता से चलाएं, का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था, उस सिद्धांत का पालन छ.ग. में स्थापित शोध एवं सर्जनपीठों, संस्थानों में होना चाहिए. इससे राज्य को एक अलग पहचान मिलेगी. इस साहित्यपीठ के माध्यम से मुक्तिबोध की अब तक अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन कराया जा सकता है. मुक्तिबोध के नाम से मध्यप्रदेश में जो आयोजन हुआ करता था, उसे बृहद्रूप में अब यहां किया जाना चाहिए. मुक्तिबोध पर अब तक हुए शोध और प्रकाशित पुस्तकों को यहां के अध्ययन केंद्र में रखा जाना चाहिए. मुक्तिबोध और उनके समकालीनों से जुड़े फोटोग्राफ, पत्राचार संदर्भ सामग्री को इस अध्ययन केंद्र में रखा जा सकता है.
छत्तीसगढ़ सरकार की इस बात के लिए मुक्त कंठ से तारीफ की जानी चाहिए कि उसनेे वह काम किया है जो मध्यप्रदेश में बरसों नहीं हुआ. पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश के समय हर साल मुक्तिबोध समारोह तो शासन स्तर से हुआ करता था किन्तु यहां से उठने वाली उनके घर को स्मारक बनाने की मांग को नजरअंदाज कर दिया जाता था. छत्तीसगढ़ की ऐसी हस्तियां जिन्होंने विभिन्न क्षेत्र में राज्य का मान बढ़ाया है और जिनको सम्मानपूर्वक याद करने के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष समारोहपूर्वक पुरस्कार देती है उसी श्रृंखला में साहित्य क्षेत्र के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम से पुरस्कार की शुरूआत की जानी चाहिए. इसी तरह की पहल माधव राव सप्रे के नाम से भी की जा सकती है. पत्रकारिता और साहित्य के संबंध को समझने के लिए सप्रे जी के नाम से भी शोधपीठ या साहित्यपीठ स्थापित किए जाने पर विचार किया जा सकता है.
मुक्तिबोध साहित्यपीठ की स्थापना करके सरकार ने मुक्तिबोध की इस भावना को आगे बढ़ाया है.
तसवीर बनती है
बशर्त कि जिंदगी के चित्रों-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो
भाव हो
मालवा के पठारों में पैदा हुए एक मामूली आदमी, जिसने एक मामूली जीवन जिया और एक दुखद मृत्यु में जिनके जीवन की पीड़ाआें का अंत हुआ ऐसे गजानन माधव मुक्तिबोध ने जुलाई १९५८ से राजनांदगांव को अपना कार्यक्षेत्र बनाया. राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज के सेके्रटरी पंड़ित किशोरी लाल शुक्ल ने मुक्तिबोध को नौकरी का इंटरव्यू लेते समय एक शर्त रखी थी ``आप अपने मार्क्सवादी सिंद्धात के प्रति आस्था रख सकते हैं और इस लिहाज से वहां कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन विद्यार्थियों पर आप अपनी वामपंथी विचारधारा को थोपने का कदाचित आग्रह नहीं रखेंगे.'' मुक्तिबोध ने राजनांदगांव में रहने के लिए शुक्ल जी की यह सलाह मान ली क्योंकि मुक्तिबोध का मानना था कि ``मार्क्सवाद थोपकर किसी को कम्युनिस्ट बनाने की दलील को ही गलत मानता रहा है.'' मुक्तिबोध, प्रोफेसर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ कॉलेज की नौकरी करते हुए राजनांदगांव में कामरेड माधवी राय और प्रकाश राव ने एक साथ मिलकर कामगारों के बीच उठना-बैठना प्लान किया और उनके जीवन और उनकी जुड़ी तकलीफों को नजदीक से देखा. बकौल मुक्तिबोध, ``अंधेरा बढ़ जाने पर मैं राजनांदगांव की एक झोंपड़ी में बीड़ी मजदूरों को क्रांति की कहानी सुनाया करता. स्थानीय साथियों ने बीड़ी यूनियन की महिलाआें को पढ़ाने की जिम्मेदारी मुझे दी है. कभी मैं गोर्की की आत्मकथा, कभी जूलियस फ्यूचिक की फांसी के तख्ते से पुस्तक की कहानी सुनाया करता, कभी मार्क्स या लेनिन, यशपाल, आजाद भगत सिंह, भारद्वाज की जीवनी सुनाता.''
१३ नवंबर, १९१७ को श्योपरु ग्वालियर में पैदा हुए मुक्तिबोध का ११ सितंबर १९६४ को लंबी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया. मुक्तिबोध १९५८ से अपने जीवन की लंबी लड़ाई लड़ते समय तक राजनांदगांव में रहे. दिग्विजय कॉलेज की घुमावदार सीढ़ियां, उसके आसपास का वातावरण उनकी कविता में आने वाले बिम्ब के रूप में जगह-जगह उपस्थित हैं. मुक्तिबोध को दुरूह और क्लिसष्ट कवि मानने वाले लोगों ने बहुत बाद में मुक्तिबोध के कवि, समीक्षक को समझा. मुक्तिबोध के शब्दों में ``जिंदगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है वह एक प्रायमरी स्कूल है जहां टाट पट्टी पर बैठना पड़ता है. जरा-सी बात पर चांटे के आघात पर चांटों की संवेदनाएं गालों पर झेलनी पड़ती हैं. जी हां, इस जिंदगी का यही हाल है. भय, आतंक, उचित आशंकाएं, अजीबोगरीब उलझाव.''
लेखक बिरादरी लंबे समय से यह मांग करती रही है कि दिग्विजय कॉलेज के उस मकान को मुक्तिबोध स्मारण घोषित किया जाए जहां मुक्तिबोध रहा करते थे. राज्य सरकार द्वारा मुक्तिबोध के निवास को स्मारक घोषित करके वहां जो अध्ययन केंद्र, लायब्रेरी बनाने का निर्णय लिया गया है उसकी सार्थकता तब और अधिक बढ़ जाएगी जब इस अध्ययन केंद्र में समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों को बुलाकर सेमीनार, गोष्ठी, व्याख्यान आयोजित किए जाए. वैसे तो मुक्तिबोध की रचनाआें पर बहुत से शोध स्वतंत्र रूप सें हुए हैं किंतु इस केंद्र के माध्यम से शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए मुक्तिबोध के नाम शोधमुक्ति दी जाकर मुक्तिबोध संबंधी अध्ययन को प्रोत्साहित किया जा सकता है. इससे शोधार्थियों को मुक्तिबोध को समझने और उनके अध्ययन को नई दिशा मिल सकेगी. मुक्तिबोध ने जहां बैठकर अपना रचना संसार रचा है उसमें जो बिम्ब, वातावरण उपस्थित है उसे समझने का मौका यहां आकर शोधार्थियों को मिलेगा. कविता के नए बिंब खुलेंगे. मुक्तिबोध किस तरह के बिम्ब रचते थे उसका आभास होगा. मुक्तिबोध कहा करते थे, ``यदि लेखक ईमानदार है तो उसे अपने प्रति और अपने युग के प्रति अधिक उत्तरदायी होना होगा. उसे अपनी सौंदर्याभिरूचि के सेंसर्स जरा ढीले करने होंगे, विषय संकलन को स्वानुभूत विवेक के विश्व चेतस हाथों में सौंपना होगा, अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने के लिए अथक प्रयास करना होगा. अधिक साहस और हिम्मत से काम लेना जरूरी है.''
मुक्तिबोध के नाम से स्थापित होने वाली साहित्यपीठ का अध्यक्ष किसी प्रतिष्ठत साहित्यकार को बनाया जाना चाहिए. मध्यप्रदेश के सागर विश्वविद्यालय में १९८४-८५ में स्थापित मुक्तिबोध शोधपीठ के सबसे पहले अध्यक्ष हरिशंकर परसाई थे उनके बाद कवि त्रिलोचन इस पीठ के अध्यक्ष बने और लंबे समय तक रहे. परसाई जी और त्रिलोचन के सागर में रहने का लाभ वहां की साहित्य बिरादरी को मिला. मुक्तिबोध के नाम से राजनांदगांव में स्थापित होने वाली साहित्यपीठ को पूरी स्वायत्ता दी जानी चाहिए. इस तरह की पीठ में किसी भी प्रकार का प्रशासकीय हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. सागर में स्थापित पीठ स्वायत्ता और वित्तीय प्रबंधन नहीं होने की वजह से बहुत सालों तक निर्जीव-सी पड़ी रही. इसकी पुनरावृत्ति यहां नहीं होनी चाहिए.
पंड़ित जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी की स्थापना के समय कला, साहित्य की संस्थाआें को कलाकार, साहित्यकार ही पूरी स्वायत्ता से चलाएं, का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था, उस सिद्धांत का पालन छ.ग. में स्थापित शोध एवं सर्जनपीठों, संस्थानों में होना चाहिए. इससे राज्य को एक अलग पहचान मिलेगी. इस साहित्यपीठ के माध्यम से मुक्तिबोध की अब तक अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन कराया जा सकता है. मुक्तिबोध के नाम से मध्यप्रदेश में जो आयोजन हुआ करता था, उसे बृहद्रूप में अब यहां किया जाना चाहिए. मुक्तिबोध पर अब तक हुए शोध और प्रकाशित पुस्तकों को यहां के अध्ययन केंद्र में रखा जाना चाहिए. मुक्तिबोध और उनके समकालीनों से जुड़े फोटोग्राफ, पत्राचार संदर्भ सामग्री को इस अध्ययन केंद्र में रखा जा सकता है.
छत्तीसगढ़ सरकार की इस बात के लिए मुक्त कंठ से तारीफ की जानी चाहिए कि उसनेे वह काम किया है जो मध्यप्रदेश में बरसों नहीं हुआ. पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश के समय हर साल मुक्तिबोध समारोह तो शासन स्तर से हुआ करता था किन्तु यहां से उठने वाली उनके घर को स्मारक बनाने की मांग को नजरअंदाज कर दिया जाता था. छत्तीसगढ़ की ऐसी हस्तियां जिन्होंने विभिन्न क्षेत्र में राज्य का मान बढ़ाया है और जिनको सम्मानपूर्वक याद करने के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष समारोहपूर्वक पुरस्कार देती है उसी श्रृंखला में साहित्य क्षेत्र के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम से पुरस्कार की शुरूआत की जानी चाहिए. इसी तरह की पहल माधव राव सप्रे के नाम से भी की जा सकती है. पत्रकारिता और साहित्य के संबंध को समझने के लिए सप्रे जी के नाम से भी शोधपीठ या साहित्यपीठ स्थापित किए जाने पर विचार किया जा सकता है.
मुक्तिबोध साहित्यपीठ की स्थापना करके सरकार ने मुक्तिबोध की इस भावना को आगे बढ़ाया है.
तसवीर बनती है
बशर्त कि जिंदगी के चित्रों-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो
भाव हो
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