Monday, January 19, 2009

मुक्तिबोध साहित्यपीठ से शोध

राज्य सरकार ने हाल ही में गजानन माधव मुक्तिबोध को लेकर दो महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिनकी साहित्य जगत में बहुत ही प्रशंसा हो रही है. राजनांदगांव स्थित दिग्विजय कॉलेज जहां मुक्तिबोध रहा करते थे और जहां रहकर उन्होंने साहित्य साधना की उस स्थान का जीर्णोद्धार कर वहां अध्ययन केंद्र की स्थापना साथ ही दिग्विजय कॉलेज प्रांगण में ही मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और बलदेव प्रसाद मिश्र की मूर्ति की स्थापना. इसके अलावा प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने हाल ही में राजनांदगांव में मुक्तिबोध साहित्यपीठ स्थापित करने की भी घोषणा की है. मुक्तिबोध स्मारक समिति का गठन करने उनके समकालीन श्री शरद कोठारी, रमेश याज्ञिक जैसे लोगों को समिति में रखकर उनके सुझाव अनुसार स्मारक के रखरखाव की पहल की गई है.
मालवा के पठारों में पैदा हुए एक मामूली आदमी, जिसने एक मामूली जीवन जिया और एक दुखद मृत्यु में जिनके जीवन की पीड़ाआें का अंत हुआ ऐसे गजानन माधव मुक्तिबोध ने जुलाई १९५८ से राजनांदगांव को अपना कार्यक्षेत्र बनाया. राजनांदगांव के दिग्विजय कॉलेज के सेके्रटरी पंड़ित किशोरी लाल शुक्ल ने मुक्तिबोध को नौकरी का इंटरव्यू लेते समय एक शर्त रखी थी ``आप अपने मार्क्सवादी सिंद्धात के प्रति आस्था रख सकते हैं और इस लिहाज से वहां कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन विद्यार्थियों पर आप अपनी वामपंथी विचारधारा को थोपने का कदाचित आग्रह नहीं रखेंगे.'' मुक्तिबोध ने राजनांदगांव में रहने के लिए शुक्ल जी की यह सलाह मान ली क्योंकि मुक्तिबोध का मानना था कि ``मार्क्सवाद थोपकर किसी को कम्युनिस्ट बनाने की दलील को ही गलत मानता रहा है.'' मुक्तिबोध, प्रोफेसर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ कॉलेज की नौकरी करते हुए राजनांदगांव में कामरेड माधवी राय और प्रकाश राव ने एक साथ मिलकर कामगारों के बीच उठना-बैठना प्लान किया और उनके जीवन और उनकी जुड़ी तकलीफों को नजदीक से देखा. बकौल मुक्तिबोध, ``अंधेरा बढ़ जाने पर मैं राजनांदगांव की एक झोंपड़ी में बीड़ी मजदूरों को क्रांति की कहानी सुनाया करता. स्थानीय साथियों ने बीड़ी यूनियन की महिलाआें को पढ़ाने की जिम्मेदारी मुझे दी है. कभी मैं गोर्की की आत्मकथा, कभी जूलियस फ्यूचिक की फांसी के तख्ते से पुस्तक की कहानी सुनाया करता, कभी मार्क्स या लेनिन, यशपाल, आजाद भगत सिंह, भारद्वाज की जीवनी सुनाता.''
१३ नवंबर, १९१७ को श्योपरु ग्वालियर में पैदा हुए मुक्तिबोध का ११ सितंबर १९६४ को लंबी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया. मुक्तिबोध १९५८ से अपने जीवन की लंबी लड़ाई लड़ते समय तक राजनांदगांव में रहे. दिग्विजय कॉलेज की घुमावदार सीढ़ियां, उसके आसपास का वातावरण उनकी कविता में आने वाले बिम्ब के रूप में जगह-जगह उपस्थित हैं. मुक्तिबोध को दुरूह और क्लिसष्ट कवि मानने वाले लोगों ने बहुत बाद में मुक्तिबोध के कवि, समीक्षक को समझा. मुक्तिबोध के शब्दों में ``जिंदगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है वह एक प्रायमरी स्कूल है जहां टाट पट्टी पर बैठना पड़ता है. जरा-सी बात पर चांटे के आघात पर चांटों की संवेदनाएं गालों पर झेलनी पड़ती हैं. जी हां, इस जिंदगी का यही हाल है. भय, आतंक, उचित आशंकाएं, अजीबोगरीब उलझाव.''
लेखक बिरादरी लंबे समय से यह मांग करती रही है कि दिग्विजय कॉलेज के उस मकान को मुक्तिबोध स्मारण घोषित किया जाए जहां मुक्तिबोध रहा करते थे. राज्य सरकार द्वारा मुक्तिबोध के निवास को स्मारक घोषित करके वहां जो अध्ययन केंद्र, लायब्रेरी बनाने का निर्णय लिया गया है उसकी सार्थकता तब और अधिक बढ़ जाएगी जब इस अध्ययन केंद्र में समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों को बुलाकर सेमीनार, गोष्ठी, व्याख्यान आयोजित किए जाए. वैसे तो मुक्तिबोध की रचनाआें पर बहुत से शोध स्वतंत्र रूप सें हुए हैं किंतु इस केंद्र के माध्यम से शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए मुक्तिबोध के नाम शोधमुक्ति दी जाकर मुक्तिबोध संबंधी अध्ययन को प्रोत्साहित किया जा सकता है. इससे शोधार्थियों को मुक्तिबोध को समझने और उनके अध्ययन को नई दिशा मिल सकेगी. मुक्तिबोध ने जहां बैठकर अपना रचना संसार रचा है उसमें जो बिम्ब, वातावरण उपस्थित है उसे समझने का मौका यहां आकर शोधार्थियों को मिलेगा. कविता के नए बिंब खुलेंगे. मुक्तिबोध किस तरह के बिम्ब रचते थे उसका आभास होगा. मुक्तिबोध कहा करते थे, ``यदि लेखक ईमानदार है तो उसे अपने प्रति और अपने युग के प्रति अधिक उत्तरदायी होना होगा. उसे अपनी सौंदर्याभिरूचि के सेंसर्स जरा ढीले करने होंगे, विषय संकलन को स्वानुभूत विवेक के विश्व चेतस हाथों में सौंपना होगा, अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने के लिए अथक प्रयास करना होगा. अधिक साहस और हिम्मत से काम लेना जरूरी है.''
मुक्तिबोध के नाम से स्थापित होने वाली साहित्यपीठ का अध्यक्ष किसी प्रतिष्ठत साहित्यकार को बनाया जाना चाहिए. मध्यप्रदेश के सागर विश्वविद्यालय में १९८४-८५ में स्थापित मुक्तिबोध शोधपीठ के सबसे पहले अध्यक्ष हरिशंकर परसाई थे उनके बाद कवि त्रिलोचन इस पीठ के अध्यक्ष बने और लंबे समय तक रहे. परसाई जी और त्रिलोचन के सागर में रहने का लाभ वहां की साहित्य बिरादरी को मिला. मुक्तिबोध के नाम से राजनांदगांव में स्थापित होने वाली साहित्यपीठ को पूरी स्वायत्ता दी जानी चाहिए. इस तरह की पीठ में किसी भी प्रकार का प्रशासकीय हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. सागर में स्थापित पीठ स्वायत्ता और वित्तीय प्रबंधन नहीं होने की वजह से बहुत सालों तक निर्जीव-सी पड़ी रही. इसकी पुनरावृत्ति यहां नहीं होनी चाहिए.
पंड़ित जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी की स्थापना के समय कला, साहित्य की संस्थाआें को कलाकार, साहित्यकार ही पूरी स्वायत्ता से चलाएं, का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था, उस सिद्धांत का पालन छ.ग. में स्थापित शोध एवं सर्जनपीठों, संस्थानों में होना चाहिए. इससे राज्य को एक अलग पहचान मिलेगी. इस साहित्यपीठ के माध्यम से मुक्तिबोध की अब तक अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन कराया जा सकता है. मुक्तिबोध के नाम से मध्यप्रदेश में जो आयोजन हुआ करता था, उसे बृहद्रूप में अब यहां किया जाना चाहिए. मुक्तिबोध पर अब तक हुए शोध और प्रकाशित पुस्तकों को यहां के अध्ययन केंद्र में रखा जाना चाहिए. मुक्तिबोध और उनके समकालीनों से जुड़े फोटोग्राफ, पत्राचार संदर्भ सामग्री को इस अध्ययन केंद्र में रखा जा सकता है.
छत्तीसगढ़ सरकार की इस बात के लिए मुक्त कंठ से तारीफ की जानी चाहिए कि उसनेे वह काम किया है जो मध्यप्रदेश में बरसों नहीं हुआ. पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश के समय हर साल मुक्तिबोध समारोह तो शासन स्तर से हुआ करता था किन्तु यहां से उठने वाली उनके घर को स्मारक बनाने की मांग को नजरअंदाज कर दिया जाता था. छत्तीसगढ़ की ऐसी हस्तियां जिन्होंने विभिन्न क्षेत्र में राज्य का मान बढ़ाया है और जिनको सम्मानपूर्वक याद करने के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष समारोहपूर्वक पुरस्कार देती है उसी श्रृंखला में साहित्य क्षेत्र के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम से पुरस्कार की शुरूआत की जानी चाहिए. इसी तरह की पहल माधव राव सप्रे के नाम से भी की जा सकती है. पत्रकारिता और साहित्य के संबंध को समझने के लिए सप्रे जी के नाम से भी शोधपीठ या साहित्यपीठ स्थापित किए जाने पर विचार किया जा सकता है.
मुक्तिबोध साहित्यपीठ की स्थापना करके सरकार ने मुक्तिबोध की इस भावना को आगे बढ़ाया है.
तसवीर बनती है
बशर्त कि जिंदगी के चित्रों-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो
भाव हो

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