Monday, January 19, 2009

पुलिस को देखने का एक नजरिया यह भी

पूरी दुनिया में इस समय मानव अधिकारों के संरक्षण की बात हो रही है. मानव अधिकारवादी संगठन जगह-जगह प्रदर्शन, गोष्ठी कर इस ओर ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं. मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और राज्य मानव अधिकार आयोग काम कर रहे हैं. यह देखने में आया है कि मानव अधिकारों के उल्लंघन की सबसे ज्यादा शिकायत पुलिस की होती है. पुलिस के कार्य व्यवहार, ज्यादतियों की शिकायतों को देखते हुए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने १९९३ में अपने गठन के समय से ही पुलिस सुधार की आवश्यकता पर बल दिया. आयोग ने कहा कि पुलिस सुधार अच्छे प्रशासन का प्रमुख मुद्दा है, जिससे एक संस्कृति का निर्माण होता है, जो मानव अधिकारों का सम्मान करता है.
देश के अन्य राज्यों की ही तरह छत्तीसगढ़ में भी मानव अधिकारों के उल्लंघन की सर्वाधिक शिकायतें पुलिस से ही हैं. राज्य में पुलिस हिरासत में होने वाली कथित मौतें और पुलिस ज्यादती की खबरों के बीच यह प्रश्न अनुत्तरित है कि जब पुलिसबल के लोग जानते हैं कि हिरासत में होने वाली मौत से उनकी नौकरी चली जाएगी वे गिरफ्तार हो जाएंगे, उन पर केस चलेगा, फिर वे ऐसा क्यों करते हैं ? हर बात के लिए पुलिस को दोष देना, उससे चुस्त-दुरूस्त रहकर जनसेवा की अपेक्षा रखने वाले हम लोगों का नजरिया पुलिस के प्रति कैसा है ? पुलिस किस दबाव, वातावरण और सुविधाआें के बीच काम करती है ? इस पर भी विचार करने की जरूरत है.
हमारे यहां पुलिस की छवि मित्र की कम, डराने, फंसाने वाले की अधिक है. पुलिस पावर के पर्याय के रूप में हमें दिखलाई पड़ती है, जिसका उपयोग सामान्यत: हर सत्ताधारी दल अपने हिसाब से करना चाहता है. किसी भी गांव, देहात, कस्बे और शहर में सरकार के सत्तारूपी चेहरे के रूप में पटवारी, पुलिस पर पहले नजर पड़ती है. चूंकि दोनों का ही सीधा संबंध आम-जनता से रहता है और दोनों ही कहीं-न-कहीं सीधे लाभ-हानि से जुड़े होते हैं इसलिए इनसे मिलते बातचीत और व्यवहार करते समय आदमी की भावमुद्रा अन्य शासकीय सेवकों की तुलना में थोड़ी अलग होती है.
हम पुलिस की बात करें तो पाते हैं कि लोग पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी अच्छी, सीख के साथ हमें मिलते हैं. जब तक काम न हो, मुसीबत ना आए या पुलिस खुद न पकड़ ले, बुला ले तब तक सामान्यत: लोग पुलिस से दूर रहते हैं. यदि किसी के घर अचानक कोई पुलिसकर्मी आ जाए तो आसपास के लोग उसे संशय से देखकर खुसरपुसर करने लगते हैं. सवाल यह है कि जो व्यक्ति कल तक हमारे जैसा ही था, जिसके दुख-दर्द, संवेदनाएं, हंसी-खुशी सब कुछ हमारे जैसी थी वह व्यक्ति वर्दी पहनते ही कैसे बदल जाता है ?
पुलिस के प्रति अविश्वास के कारणों की यदि हम पड़ताल करें तो हमें इसके ऐतिहासिक कारण भी दिखलाई पड़ते हैं. भारत में पुलिस संगठन की स्थापना विद्रोह को दबाने और हमारे विदेशी शासकों के हितों को पूरा करने के लिए १८५७ के भारतीय गदर के बाद की गई थी जिससे जनता के मन में पुलिस के प्रति नकारात्मक भाव पैदा हुआ वह अविश्वास और नफरत का भाव हमें आजादी प्राप्ति के ५६ साल बाद भी दिखलाई पड़ता है.
पुलिस की खराब छवि के कारणों की पड़ताल की जाए तो जो मुख्य कारण हमें दिखलाई पड़ते हैं वे हैं पुलिस हमेशा शासक वर्ग के बचाव में खड़ी दिखती है जिसके कारण उसे शासक वर्ग की इच्छा, निर्देशों के अनुरूप काम करना पड़ता है. चाहे फिर वह जनभावना के विपरीत ही क्यों न हो. जो प्रकरण पुलिस द्वारा तैयार किए जाते हैं, उन्हें समय पर न्यायालय में दायर नहीं करना, रिपोर्ट लिखने में हीलहवाला करना, अमीर और शक्तिशाली व्यक्तियों के साथ सांठ-गांठ रखना, अभद्र और निर्दयी व्यवहार तथा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की शिकायत इसके अलावा अपने आपको विशिष्ट बताना. किसी भी समारोह, आयोजनों, स्थानों में अपने परिवार और महकमे के बड़े अफसरों के लिए विशेष व्यवस्था, बिना पैसा खर्च किए सुविधाआें को पाने की लालसा, दूसरे को नियमकानून का उल्लंघन करना, वर्ग विशेष की हिमायती बनकर उसके पक्ष में खड़े दिखना प्रमुख कारण दिखलाई पड़ते हैं. ऐसे बहुत से कारण हैं जो पुलिस की छवि को आम जनता की नजर में खराब करते हैं.
यह तस्वीर का एक पहलू है, तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि हमारी तमाम मुसीबत, संकट की घड़ी में पुलिस ही काम आती है. पुलिस महकमे की तमाम खराब छवि के बावजूद इस संगठन में अच्छे और कर्त्तव्यनिष्ठ लोगों की कमी नहीं है जो अपनी जान जोखिम में डालकर जानमाल की रक्षा करते हैं. यदि हम भारत सरकार के गृह मंत्रालय की वेबसाईट पर उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो पाते हैं कि वर्ष १९९१-९२ से २००० तक अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए ९३८९ पुलिसकर्मी मारे गये जो औसतन १०४३ व्यक्ति प्रतिवर्ष है. हमारे देश में औसतन ७४६ व्यक्तियों पर एक पुलिसकर्मी है. प्रत्येक जांच अधिकारी एक बार में ४५ से अधिक केस देखता है. कांस्टेबल जो पुलिस बल का ८८ प्रतिशत हिस्सा हैं को अकुशल श्रमिक समझा जाता है. इन्हें कम वेतन मिलता है और इनका सामाजिक स्तर काफी खराब है. मात्र ३७ प्रतिशत पुलिसकर्मियों के पास शासकीय आवास सुविधा उपलब्ध है. पुलिस की ड्यूटी चंूकि २४ घंटे की होती है इस कारण उन्हें अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने का अवसर भी कम मिलता है. पुलिस की पदोन्नति के अवसर कम होते हैं. उन्हें बहुत समय तक एक ही पद पर काम करना पड़ता है. अन्य शासकीय सेवकों की तरह पुलिस को अपनी जायज मांगों को उठाने के लिए हड़ताल की अनुमति नहीं है. सजा और दंड का प्रावधान होने से पुलिस बल को हमेशा अपने वरिष्ठ से डरा सहमा रहना पड़ता है. पुलिस बल के निरंतर प्रशिक्षण की व्यवस्था बहुत ही कम है. पुलिस के पास अपराधियों की तुलना में पुराने और कम आधुनिक हथियार हैं. पुलिस को निर्धारित कार्यों के अलावा बहुत से ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जो परिभाषित नहीं हैं जिनका संबंध सीधे उनके काम से नहीं है. अन्य शासकीय विभागों की तुलना में सर्वाधिक राजनीतिक दबाव पुलिस को ही झेलना पड़ता है.
नए राज्य छत्तीसगढ़ की पुलिस व्यवस्था के बारे में हम बात करें तो छ.ग. विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार ६ दिसंबर २००३ से नवंबर २००४ तक राज्य में ३६० नक्सली घटनाएं हुइंर् जिसमें १४ नक्सली और ११ पुलिसकर्मी मारे गए, ३५ पुलिसकर्मी घायल हुए. इसके अलावा इस अवधि में ४६ नागरिकों की भी मृत्यु हुई है. पिछले तीन सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो हमे मालूम होगा कि वर्ष २००२ में ९ पुलिसकर्मी की मृत्यु हुई, ३७ घायल हुए. वर्ष २००३ में ३० पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई, ४१ घायल हुए. वर्ष २००४ में अक्टूबर तक विभिन्न घटनाआें में ८ पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई, ३५ घायल हुए. विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र में ७९ अधिकारी और कर्मचारियों की पदस्थापना की गई जिनमें से सिर्फ १९ ने पदभार ग्रहण किया शेष अभी तक कार्य पर उपस्थित नहीं हुए हैं. सामान्यत: यह देखने में आता है कि न केवल पुलिस बल से जुड़े अधिकारी, कर्मचारी ही नहीं बल्कि समूचा शासकीय अमला नक्सल प्रभावित क्षेत्र में अपनी पदस्थापना से डरता है. हाल ही में हुए पुलिस इंस्पेक्टर, सिपाही के अपहरण, गश्त के दौरान विस्फोट से पुलिस वाहन को उड़ा देना और नक्सलियों के साथ बड़ी संख्या में ग्रामीणों का संपर्क, किसी भी शासकीय सेवक के मनोबल को तोड़ने के लिए पर्याप्त है. इसके बावजूद बड़ी संख्या में शासकीय अमला विशेषकर पुलिस के जवान ऐसे स्थानों पर कैम्प लगाकर रहते हैं. बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए उन्हें अपने परिवार को अपने से दूर रखना पड़ता है.
सवाल यह है कि जिस पुलिस बल पर हमारी आतंरिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था, यातायात नियंत्रण सहित ऐसा वातावरण बनाए रखने की जवाबदारी है जिसमें प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के साथ रह सके, उस पुलिस बल का मनोबल कैसे बढ़ाया जाए ?
पुलिस सुधार को लेकर बहुत सारे सेमीनार, सुझाव, मार्गदर्शी सिद्धांत और सिफारिशें प्राप्त हुई हैं और होती रहती हैं. इसके बावजूद पुलिस की छवि मित्र की नहीं बन पा रही है. पुलिस सुधार के अंतर्गत जो सुझाव सिफारिश प्रमुखता से सामने आई हैं उनमें पुलिस पर गैर-कानूनी राजनीतिक और कार्यपालिका के नियंत्रण को हटाना, पुलिस को कानून के प्रति जिम्मेदार बनाना, पुलिस बल में भर्ती, प्रशिक्षण और नेतृत्व के स्तर में वृद्धि करना तथा पुलिसकर्मियों के लिए कार्य तथा सेवा शर्तों में सुधार शामिल हैं. पुलिस का मनोबल बढ़ाने और उसे समक्ष बनाने के लिए जरूरी है कि कोई मनमाना स्थानांतरण और तैनाती नहीं हो. पुलिस भर्ती में पारदर्शिता बरती जाए ताकि सबसे अच्छे व्यक्ति इस सेवा में शामिल हो सकें. ईमानदार और कुशल पुलिसकर्मियों के लिए समयबद्ध पदोन्नति का प्रावधान हो. ऐसा कार्य वातावरण तैयार किया जाए, जिसमें पुलिस बल अच्छी तरह से निर्भीक होकर अपना कार्य कर सके.
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने प्रत्येक राज्य में कानूनी तौर पर एक राज्य सुरक्षा आयोग स्थापित करने की सिफारिश की है. आयोग ने अपनी सिफारिश में पुलिस बल के कार्यकलाप के लिए व्यापक पुलिस मार्गदर्शिका बनाने, पदोन्नति के लिए एक अपीलीय मंच, वार्षिक कार्यमूल्यांकन और कार्यकलापों की सतत् रूप से समीक्षा की बात कही है. १८६१ के पुलिस अधिनियम के स्थान पर एक नया पुलिस अधिनियम बनाने की सिफारिश की गई है. यह सही है कि आम जनता द्वारा दिए गए सहयोग और समर्थन से ही पुलिस के कार्यों की सफलता निर्भर करती है. आम जनता और पुलिस के सहयोग से सामुदायिक पुलिस व्यवस्था लागू कर हम पुलिस की छवि एक मित्र की बना सकते है, जिसे लोग हर तरह की मुसीबत में सहयोग के लिए संपर्क करें.

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