Monday, January 19, 2009

बच्चों के साथ मानवीय व्यवहार जरूरी

शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत छात्र-छात्राआें विशेषकर छोटे बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार, मारपीट और अनेक तरह की प्रताड़ना के मामले बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं. अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ मानव अधिकार के समक्ष चार ऐसे मामले आए हैं जो हमें यह सोचने पर विवश करते हैं कि शिक्षण संस्थाआें में छात्रों और शिक्षकों के बीच किस तरह के संबंध होना चाहिए. क्या पढ़ाई-लिखाई, अनुशासन बनाए रखने के लिए शिक्षकों द्वारा छात्र-छात्राआें के साथ मारपीट कक्षा से बाहर निकाल देना, परीक्षा में बैठने से वंचित करना, इस हद तक उठक-बैठक लगवाना कि छात्र बेहोश होकर गिर जाए या फिर होमवर्क करके नहीं अपने वाले छात्रों को इतना पीटा जाए कि उनकी मृत्यु तक हो जाए.
बस्तर के एक शिक्षाकर्मी द्वारा कक्षा में नहीं आने पर एक छात्र की हत्या, शहडोल में शिक्षक द्वारा छात्रों को होमवर्क नहीं करने पर मृत्युदंड तथा चांपा-जांजगीर में एक छात्र को तीन सौ उठक-बैठक लगवाकर अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में पहुंचाना. भोपाल के एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में अध्ययनरत मास्टर गृुल्लर को हिन्दी में बात करने पर `मैं गधा हूं' जैसी तख्ती लटकाकर स्कूल में घुमाना ऐसी बहुत-सी घटनाएं हैं जो हमें अपनी शिक्षा प्रणाली, शिक्षण संस्थाआें के माहौल और छात्र-शिक्षक संबंधों की नए सिरे से पड़ताल के लिए विवश करती हैं.
छत्तीसगढ़ मानव अधिकार आयोग ने हाल ही में चांपा-जांजगीर जिले के ग्राम जैजेपुर में एक शिक्षिका द्वारा होमवर्क करके नहीं आने पर एक छात्र से तीन सौ बार उठक-बैठक लगवाकर बीमार होने के हद तक प्रताड़ित करने का मामला पंजीबद्ध किया. कोरबा जिले के एक स्कूल में शिक्षक द्वारा अध्ययनरत छात्राआें से अश्लीन हरकत, रायपुर के टाटीबंध स्थित स्कूल में विलंब से पहुंचने वाली छात्राआें को छमाही परीक्षा में बैठने से वंचित करना जैसे मामले आयोग के समक्ष आए हैं. कुछ अभिभावकों ने अपना नाम गुप्त रखते हुए शिकायत की है तो कुछ ने आयोग के समक्ष आकर अपना दुखड़ा रोया है.
अधिकांश शिक्षक इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि बच्चों के साथ मारपीट करना कानूनी दंडनीय अपराध है. बाल अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय १९८९ के तहत् बच्चों के अधिकारों को विस्तृत रूप से परिभाषित करते हुए जो प्रावधान किए गये हैं उसे भारत सरकार ने स्वीकार करते हुए कहा है कि बच्चों को स्वास्थ्य तरीके और स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने का अवसर दिया जाएगा. बच्चे से तात्पर्य १८ वर्ष से कम के प्रत्येक मनुष्य से है. अनुच्छेद २८ और २९ के अनुसार बच्चे के व्यक्तित्व, प्रतिभाआें तथा मानसिक और शारीरिक योग्यताआें का पूर्ण विकास तथा स्कूल में अनुशासन लागू करने के तरीके बच्चे की मानवीय गरिमा के अनुकूल होना चाहिए. इसके बावजूद बहुत सारे स्कूलों में बच्चों के साथ मारपीट आम बात है. बच्चों को हिन्दी या अंग्रेजी बोलने पर प्रताड़ित करना, स्कूल में टिफिन नहीं खाने देना, आर्थिक दंड लगाना, दिनभर दीवाल के कोने में या दरवाजे के बाहर खड़ा रखना, उकडूूं या मूर्गा बनाकर खड़ा करना, उठक-बैठक लगवाना, जरा-सी नाराजगी पर छात्र-छात्राआें को थप्पड़ मारना, आम शिकायत है. आजकल स्कूल कॉलेज के बच्चों के बीच इंटरनेट, मोबाइल कैमरा जैसी नई तकनीक काफी लोकप्रिय है जिसके चलते बहुत सारे धनाढ्य वर्ग के छात्र-छात्रा स्कूलों, कॉलेजों में नए इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को लेकर पहुंचते हैं और फिर उनके जरिये गंदे-गंदे एस.एम.एस., फोटोग्राफ, वीडियो क्लिपिंग का अदान-प्रदान होता है.
बहुत से माता-पिता अपने बच्चों के माध्यम से अपने अधूरे सपने को पूरा करना चाहते हैं. वे जो नहीं बन पाए अपने बच्चों को वे वह बनाना चाहते हैं, उनके लिए बच्चों की जिज्ञासाएं, सहज सपने कोई मायने नहीं रखते. सुबह से शाम तक बच्चों को रोबोट की तरह चाबी से चलाने वाले अभिभावक अनजाने में ही कई बार बच्चों से उनका बचपन छीन लेते हैं. बच्चे अपनी जिज्ञासाएं, अपने भीतर की मस्ती और शैतानी, स्कूल के अपने-अपने दोस्त के साथ शेयर करते हैं, जिन्हें बच्चों के मां-बाप नहीं जानते. चूंकि स्कूल में साथ पढ़ने वाले छात्र-छात्रा अलग-अलग परिवेश, पर्यावरण और संस्कारों से आते हैं ऐसे में बच्चे के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि वह किसका अनुसरण करे. घर में टी.वी., कॉमिक्स, पत्र-पत्रिकाएं और स्कूल के शिक्षक और उनका मित्र, आस-पड़ोस, माता-पिता, सहपाठी किसके बीच में से वह अपने लिए रोल मॉडल चुने.
आज के शिक्षकों के सामने छात्र-छात्राआें को गुरू-शिष्य को परस्पर बांधे रखना सबसे बड़ी चुनौती है. आधुनिक संचार प्रणाली और एक-दूसरे से श्रेष्ठ दिखने, कुछ अलग करने तथा उच्छृंखलता भरे माहौल में शिक्षण संस्थाआें की कथित पवित्रता और अनुशासन को बनाए रखना परंपरागत तरीके के लिए मुश्किल हो रहा है. शिक्षण संस्थान में अपने आदेश का पालन होते न देख या फिर अनुशासन की पकड़ को कमजोर होता देख बहुत से शिक्षक विचलित हो जाते हैं और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो अनअपेक्षित/अमानवीय है.
बहुत से शिक्षकों का तर्क है कि बच्चे यदि होमवर्क करके नहीं आते, समय पर स्कूल नहीं पहंुचते, पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और स्कूल के अनुशासन को तोड़ते हैं तो उन्हें मारना लाजमी है. उन्हें ऐसे समय तुलसीदास की वह शिक्षा याद आती है जिसमें कहा जाता है कि भय बिन प्रीत न होये गोंसाई. सूचना क्रांति के युग में मानव अधिकार के जानकार छात्र-छात्रा और बहुत-से अभिभावकों को यह व्यवहार बिलकुल भी पसंद नहीं है. अमेरिका, यूरोप या फिर बच्चों के मनोविज्ञान से परिचित ऐसे बच्चों या अभिभावकों का एक बड़ा वर्ग स्कूल हिंसा, मारपीट के खिलाफ शिकायत करता है. बच्चे भी मारपीट करने वाले, हमेशा उलहाना देने या बेइज्जत करने वाले शिक्षक-शिक्षिकाआें का सम्मान नहीं करते. शिक्षक/शिक्षिका के क्लास में आते ही बच्चों की आंखों में एक अलग किस्म की नफरत या भय का भाव होता है जो शिक्षक के हटते ही उपहास या मजाक में तब्दील हो जाता है.
बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले मनोचिकित्सक कहते हैं कि हर बच्चा आइंस्टीन नहीं हो सकता. क्लास में पढ़ने वाले सभी बच्चों का आईक्यु अलग-अलग होता है. सभी बच्चों से एक-सी अपेक्षा करना ठीक नहीं है. मनोवैज्ञानिक नियमित रूप से पेरेंट टीचर मीटिंग पर जोर देते हुए कहते हैं कि यदि बच्चे से किसी भी प्रकार की शिकायत है तो उसके अभिभावकों को सूचित कर उनके माध्यम से प्राब्लम को हल करना चाहिए. माह में एक दिन सभी अभिभावकों की मौजूदगी में मीटिंग होनी चाहिए. डॉक्टरों का मानना है कि शिक्षकों की समय-समय पर ट्रेनिंग होना चाहिए उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि बिना मारपीट के भी अलग-अलग टेक्नीक से बच्चों को पढ़ाया-लिखाया जा सकता है. कई बार बच्चे स्कूल में होने वाली मारपीट से अपने पूरे एटिट्यूट को नेगेटिव बना लेते हैं. कई बच्चे होमवर्क, पढ़ाई, परीक्षा आदि के भय से घर से भाग जाते हैं, कई बच्चे असफलता के कारण आत्महत्या कर लेते हैं.
बच्चों का अच्छी ढंग से लालन-पालन और शिक्षण माता-पिता और शिक्षकों के आपसी तालमेल से ही संभव है. बहुत सारे मां-बाप तो शिक्षकों को इस बात का अधिकार सहर्ष दे देते हैं कि उनके बच्चे मारपीट करें तो कोई मुरब्बत न करें, जरूरी पड़े तो अच्छी पिटाई भी करें. बहुत सारे मां-बाप प्रतिस्पर्धा के चक्कर में पड़कर अपने बच्चे को हमेशा हर क्षेत्र में अव्वल ही लाना चाहते हैं. कुछ अभिभावक अपने बच्चों की गतिविधियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर उन्हें स्कूल, कॉलेज, छात्रावास के भरोसे छोड़कर निश्चित हो जाते हैं. नाबालिग बच्चों को मोबाइल, मोटरसाइकिल और बड़ी मात्रा में जेब खर्च देने वाले मां-बाप इस बात से बेखबर रहते हैं कि उनका बच्चा जिस संस्थान में पढ़ रहा है वहां सभी बच्चे एक से नहीं हैं, बच्चों में यहीं से ऊं च-नीच, अमीर-गरीब और अहम् की भावना विकसित होती है.
जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावक भी इस बात का ध्यान रखें कि उनका बच्चा किस तरह की अपेक्षा करता है, उसका व्यवहार कैसा है, उसकी वाजिब जरूरतें क्या हैं, वह पढ़ाई का कितना बोझ सह सकता है ? क्लास में सभी बच्चे फर्स्ट क्लास पास नहीं आ सकते. बच्चों को केवल डरा, धमका, मारपीट करके ही नहीं सुधारा जा सकता बल्कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखकर उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हें वे ही सुविधाएं, साधन उपलब्ध कराएं जो उनके व्यक्तित्व विकास, पढ़ाई-लिखाई और बेहतर नागरिक बनाने के लिए जरूरी हैं.

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